खेती पर कॉरपोरेट्स की नज़र क्यों?

 खेती पर कॉरपोरेट्स की नज़र क्यों?

उद्योग और व्यापार इन दो क्षेत्रों पर पूंजीपतियों एवं कॉरपोरेट  घरानों का पहले से ही एकाधिकार रहा है।


कृषि क्षेत्र अभी तक कॉरपोरेट सेक्टर के शिकंजे से दूर था। इस बात की इन्हें बड़ी तिलमिलाहट थी। 


सरकार की मेहरबानी से प्राकृतिक संसाधनों, उद्योग और व्यापार पर तो कॉरपोरेट घरानों ने पहले ही कब्जा कर रखा है। 


अब खेती पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि अपने उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरूरी उत्पादन अपनी सुविधाओं के अनुसार कर सकें।


खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात- निर्यात आदि सभी पर कॉरपोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं। 


दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये जैव ईंधन, फलों, फूलों या खाद्यान्न खेती भी दुनिया की बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते है।


मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में नीति आयोग ने कृषि क्षेत्र में सुधार की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। 


इसमें जिन नीतियों की वकालत की गई है, उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं। 


कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की भूमिका बढ़ाने पर है। नए कानून एक तरह से भारत में 'कृषि के निजीकरण' का रोडमैप हैं।


सरकार ने अब कॉरपोरेट घरानों की हितों को साधते हुए खेती का भी कॉरपोरेटीकरण करने की ठान ली है। 


अज़ीब बात ये है कि ये सब किसान कल्याण की दुहाई देकर किया जा रहा है। अब उद्योग, व्यापार और खेती-- सब कुछ कॉरपोरेट्स करेंगे। 


मेहनतकश जनता की मेहनत की लूट अब सब क्षेत्रों में कानूनी रूप से होगी। आजादी के बाद किसान के साथ जो अन्नदाता का टैग जुड़ा था, वह भी उनसे छीनकर कालांतर में कॉरपोरेट घरानों के साथ जोड़ दिया जाएगा। 


वर्तमान पीढ़ी को शायद ये पता नहीं है कि आज़ादी से पहले रियासतों में राजा और जमींदार को ही अन्नदाता कहकर संबोधित किया जाता था। अन्न उपजाते थे किसान और अन्नदाता कहलाते थे राजा व जमींदार।


सरकार  कहती है कि 70 साल बाद आज ये बिल पास होने पर किसान आज़ाद हुए हैं। इससे ज़्यादा बेहूदी बात और क्या हो सकती है? 


ये बात वे नेता कह रहे हैं जिनके पुरखों का आज़ादी के आंदोलन से दूर -दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है। उनकी भूमिका हुंकारियों, हाज़रियों और हुज़ूरीयों की रही है। 


आज़ादी की लड़ाई हो या राष्ट्रीय आपदा का दौर हो या खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने का मामला हो --इन सब में किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 


जिनकी लड़ाई और त्याग की बदौलत जिन्हें बैठे-बिठाए आजादी मिली, वे आज किसानों को आज़ादी का तोहफ़ा देने की बात कर रहे हैं। बस, ज़हन में ये पंक्तियाँ कौंधती हैं:


गुलिस्ताँ को लहू की जरूरत पड़ी

सबसे पहले ही गर्दन हमारी कटी !

फिर भी कहते हैं मुझसे ये अहले वतन

ये चमन है हमारा तुम्हारा नहीं है !!


इन तीनों कानून  की सिलसिलेवार विवेचना कर लेते हैं:


1. किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) बिल ( The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Bill, 2020)


किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य बिल के बारे में प्रधानमंत्री जी सहित सभी मंत्री जोर देकर कहा रहे हैं कि अब किसान को अपनी फसल कहीं भी बेचने की आज़ादी दे दी गई है। 


ये आज़ादी तो पहले से है। ऐसा कोई कानून नहीं बना हुआ है जो किसान पर अपनी फसल मंडी से बाहर कहीं पर भी बेचने की पाबंदी थोपता है। इस मामले में सरकार जनता को समझा नहीं पा रही है।


मसलन, राजस्थान के चूरू, बीकानेर आदि जिलों में पंजाब के लोग गेंहू और चावल ट्रेक्टर/पिक अप में लादकर लाते हैं और कस्बों- गाँवों में घूमकर बेचकर जाते हैं। महाराष्ट्र का प्याज, कश्मीर के सेब राजस्थान में धड़ल्ले से बिक ही रहा है। असली बात है वाज़िब कीमत की। वो किसान को मिले, इसकी गैरन्टी ये बिल नहीं देता है।


मंडी से बाहर अब भी किसान फसल बेचने को मजबूर हैं क्योंकि मंडी में गेंहू समेत कुछ धान की ही खरीद होती है और वो भी सीमित मात्रा में तथा खरीद भी विलंब से शुरू होती है। पंजाब और हरियाणा को छोड़कर अन्य राज्यों में मंडियों की संख्या सीमित है। 


मंडी से बाहर किसान के धान की खरीद व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) से कम पर करते हैं और उसके भुगतान पर कई कटौतियां ( जैसे तुलाई, ढुलाई, काटा आदि ) करते हैं। किसान को ये सारे नुकसान सहने पड़ते हैं।


मंडियां दूर दूर स्थित होने, मंडियों की संख्या सीमित होने और वहाँ भी सीमित धान की खरीद होने के कारण अधिकांश किसान अपनी फसल मंडी से बाहर बेचने को मजबूर हैं। 


अज़ीब बात है कि जो काम किसानों को मजबूरी में घाटा सहन कर करना पड़ता है, उसे ये सरकार किसान को आज़ादी का तोहफ़ा मानती है। 


सरकार द्वारा गठित शांता कुमार समिति मानती है कि देश में सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है और 94 प्रतिशत किसान खुले बाजार पर निर्भर हैं। 


इससे स्पष्ट है, अगर खुला बाजार अच्छा होता, तो किसानों की समस्या इतनी क्यों बढ़ती? अगर खुले बाजार में किसानों को उचित मूल्य या फ़ायदा मिल रहा होता, तो वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग क्यों करते?


बिल में कहीं भी ये लिखा हुआ नहीं है कि मंडी से बाहर भी व्यापारी को किसान की फसल MSP या इससे अधिक पर खरीदनी होगी। इसमें तो व्यापारी को छूट है कि वो अपने हिसाब से, अपनी शर्तों से, अपने स्तर पर अपनी मनमर्जी से कीमत तय कर सकेगा। 


बाजार में संगठन व्यापारियों का है ना कि किसानों का। क्या सरकार इस बात से अनभिज्ञ है? नया कानून तो ये कहता है कि किसान की उपज का मूल्य बाजार तय करेगा।कृषि किसान खुद ने बिल पर चर्चा के बाद राज्य सभा में जबाब देते हुए कहा है कि इन बिलों का एमएसपी से कोई 'लेनादेना' नहीं है। 

हा, यही शब्द कहे हैं। किसान यही तो मांग कर रहे हैं कि मंडी से बाहर भी उनकी फसल की खरीद एमएसपी पर करने की गैरन्टी का प्रावधान इन बिलों में किया जाना चाहिए। 

किसान ये ही तो मांग कर रहे हैं कि इस कानून में मंडी के बाहर कृषि उत्पादन को एमएसपी पर खरीदने की शर्त लिखी नहीं गई है, उसे लिखा जाना चाहिए। मुख्य मांग ये ही तो है। सरकार है कि व्यापारियों का हित साधते हुए ये काम करना नहीं चाहती।


होना तो ये चाहिए था कि कानून में ऐसा प्रावधान किया जाता, जिससे व्यापारी मंडी से बाहर किसान की उपज की खरीद एमएसपी या उससे ऊपर करने के लिए बाध्य होता। 


ऐसा नहीं करने वाले व्यापारी को सजा दिए जाने का प्रावधान किया जाता। पर ये कानून तो ये कहता है कि किसान की उपज का मूल्य बाजार तय करेगा। कीमतें तय करने की कोई मैकेनिज्म भी इस बिल में नहीं दी गई है। 


कोई पैरामीटर्स तय नहीं किए गए हैं। इसलिए डर है कि कुछ समय बाद स्थानीय बाजार भी ध्वस्त होने के बाद कॉरपोरेट कंपनियां अपनी मनमानी करेंगी।


देश में कहीं पर भी फसल बेचने का ज्ञान किसानों को पेलने वाले ये समझ लें कि किसान की फसल कोई बनी हुई चाय नहीं है जिसे केतली में डालकर ट्रैन में बैठकर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर जाकर बेचा जा सके। 


फसल कोई फैक्टरी प्रोडक्ट- जैसे कंघी, टूथपेस्ट- नहीं है जिसे बैग में डालकर दूसरे राज्य में जाकर आसानी से बेचा जा सके। 


किसान अपना उत्पाद ट्रक/ट्रेक्टर में लादकर, भारी भाड़ा वहन कर किसी भी राज्य के बाजार में चला जाए, उसको लूटने वाले व्यापारी हर बाजार में संगठित मिलेंगे। कोई गैरन्टी नहीं है कि किसान को फसल के इतने दाम मिल जाएंगे कि माल ढुलाई सहित पूरी लागत निकल आएगी। 


किसी भी राज्य में चले जाइए, व्यापारियों का किसान के साथ सलूक शोषण करने का रहता है।

धोखाधड़ी के मामले बढ़ेंगे

ऐसे अनेक मामले सामने आते रहते हैं जिनमें कई किसान अपंजीकृत व्यापारियों के झांसे में आकर धोखे के शिकार हो रहे हैं। 


कृषि मंडियों में कृषि उपज विपणन समितियों ( Agriculture Produce Market Committee --APMC ) एक्ट के तहत वेरिफिकेशन के बाद ही व्यापारी को मंडी में खरीद करने का लाइसेंस मिलता है। 


ऐसे में किसान आश्वस्त रहते हैं कि मंडी में व्यापारी धोखाधड़ी नहीं करेगा। नया कानून जो बनने जा रहा है उसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैन कार्ड है, वह व्यापारी के रूप में किसान से फसल खरीद सकता है।


चूंकि नए कानून के अनुसार बिना लाइसेंस वाला कोई भी व्यक्ति, बस जिसके पास पैन कार्ड है, वह व्यापारी के रूप में किसान की फसल खरीद सकता है। किसान को भुगतना भी उसे तत्काल करने की जरूरत नहीं है। 


खरीददार को तीन दिन की मोहलत ये कानून देता है। लाइसेंसधारी नहीं होने के कारण खरीददार व्यापारी को लेन-देन का उचित रिकॉर्ड भी नहीं रखना होगा। 


ऐसी स्थिति में किसान धोखाधड़ी का शिकार होने पर कानून की मदद कैसे ले सकते हैं? किसी बिना लाइसेंस व अपंजीकृत व्यापारी को कैसे ढूंढा जा सकता है?


मंडी सिस्टम ख़त्म कैसे होगा?

लोग कहते हैं कि बिल में मंडी व्यवस्था और एमएसपी ख़त्म करने की बात नहीं की गई है। ये बात सही है पर बिल लाने की मंशा इन्हें ख़त्म करने की है। 


कैसे? थोड़ी सी समझ वाला व्यक्ति भी समझ सकता है। हाथ कंगन को आरसी क्या? टेलीकॉम के क्षेत्र में प्रधानमंत्री जी ने जिओ कंपनी को प्रमोट किया था। प्रचारक के रूप में विज्ञापनों में खुद की फ़ोटो छपवाई थी। 


शुरू में फ्री किया गया। हमनें आशंका व्यक्त की थी कि ये सब सरकारी कंपनी बीएसएनएल और अन्य कंपनियों को रास्ते से हटाने की सोची समझी साज़िश है। दो साल में ही वो आशंका हक़ीक़त में बदल गई। 


सरकार ने सार्वजनिक उपक्रम बीएसएनएल को ध्वस्त कर कर्मचारियों को घर बैठा दिया है। ऐसा ही हश्र मंडियों का होना तय है। मंडी में व्यापारी को टैक्स चुकाना होगा, लाइसेंस लेना होगा। बाहर कोई भी टैक्स नहीं देना होगा, 


इसलिए कोई भी व्यापारी मंडी में खरीद क्यों करेगा?


मंडी से किसानों को विमुख करने के लिए शुरू में व्यापारी किसानों की फ़सल खरीदते समय उन्हें कुछ ज़्यादा मूल्य देने की चाल चलेंगे क्योंकि बाहर उन्हें मंडी टैक्स नहीं देना पड़ता है। 


पर मंडी सिस्टम ध्वस्त होते ही व्यापारी एकजुट होकर किसान उत्पादों की वैसी ही लूट मचाएंगें जो इन मंडियों के वजूद में आने से पहले हुआ करती थी। आज की पीढ़ी इस बात से अनभिज्ञ है।


पंजाब और हरियाणा में मंडियों का नेटवर्क पुख्ता है। इसलिए इन दो राज्यों के अधिकांश किसानों के गेंहू व अन्य धान की खरीद मंडियों में एमएसपी पर हो जाती है। 


मंडियों में वसूले जाने वाले टैक्स से ग्रामीण सड़कों का मजबूत नेटवर्क है। इसी वजह से पंजाब और हरियाणा के किसान इन नए कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।


मंडी व्यवस्था की बदौलत आज देश के एफ.सी.आई. के गोदामों में लगभग 750 लाख टन गेँहू ,चावल के बफर-स्टॉक भरे हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान शहरों से मज़दूरों के पलायन के संकट के दौरान 80 करोड़ जरूरतमंद जनता को इसी भंडार से अन्न बांटा गया है। 


मंडी ख़त्म होने का मतलब एफसीआई के गोदाम भी खाली रहेंगे।


एक देश, दो बाजार


अब जब वैध रूप से मंडी के बाहर भी अनाज बिकेगा, तो सरकार के एक देश, एक बाजार के दावे की पोल खुल जाएगी। 


ये तो एक देश, दो बाजार हो जाएगा। एक मंडी में और दूसरा मंडी से बाहर। मंडी में जो खरीद होगी, उस पर व्यापारी को टैक्स देना होगा, लेकिन मंडी के बाहर होने वाली खरीद पर उसे कोई टैक्स नहीं देना होगा। 


ऐसी स्थिति में मंडी सिस्टम का धराशायी होना तय है।

खाली मंडियों का आगे चलकर बेचान होना भी तय है। खरीददार कौन होंगे? वही कॉरपोरेट्स। 


इस बेचान को किसान- कल्याण के नाम की डुगडुगी बजाकर किया जाएगा और इसके लिए सरकार ने एक बड़ा सा शब्द खोज रखा है और वह है, विनिवेश ( disinvestment )।


झूठ पर झूठ


बिचौलियों की रट लगाकर कॉरपोरेट घरानों को कृषि जिंसों की खरीद कर उसके भंडारण की खुली छूट देने की साज़िश है। 


क्या कॉरपोरेट घरानों के मालिक खुद सीधे किसानों से खरीद करेंगे? कतई नहीं। ये काम कॉरपोरेट्स के दलाल और कारिंदों की फौज करेगी। 


क्या उन्हें बिचौलिये नहीं कहकर कृपालु कहा जाएगा ? सीधी सी बात है कि किसान को छोटी मछलियों से बचाने के नाम पर उसका मुकाबला शार्क या मगरमच्छ से करवा दिया गया है। 

अंदेशा है कि मंडी सिस्टम धराशायी होने पर फसलों के दाम तय करने का पूरा अधिकार कॉरपोरेट घरानों के हाथ मे चला जायेगा।

 प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि मंडी और एमएसपी खत्म नहीं होगी। 

प्रधानमंत्री जी, आप और रेलमंत्री जी बार बार कहते रहे हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। ट्रैक, ट्रैन, प्लेटफार्म, इन सबका धड़ल्ले से निजीकरण करते जा रहे हो और कहते हो कि ये सब यात्री हित में है। 

जिओ टेलीकॉम का प्रचार करते समय भी आप कहते थे कि इससे बीएसएनएल पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। बीएसएनएल रसातल में जा चुका है। कर्मचारियों को घर बैठा दिया गया है। इंफ्रास्ट्रक्चर को बेचने की प्रक्रिया जारी है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के तीन हज़ार कर्मचारी नौकरी से निकाले जा रहे हैं। संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि कर्मचारियों को बेहतर विकल्प दिया गया है। शब्दों से खेलना और निर्लज्जता से उनके अर्थ बदलना कोई इस सरकार से सीखे। दुनिया की पहली सरकार है जो कर्मचारियों को नौकरी से निकालने को बेहतर विकल्प देना कहती है।नोटबन्दी के समय कालेधन की कमर तोड़ने की बात कही थी। पूंजीपतियों का तो कुछ बिगड़ा नहीं। इसकी सारी मार गरीब जनता को झेलनी पड़ी। जीएसटी कानून लागू करते समय भी बढ़चढ़ कर वादे किए गए थे। रात को 12 बजे संसद भवन में बैठक आयोजित की गई थी। नई आज़ादी का जश्न मनाया गया था। राज्यों का हिस्सा निर्बाध रूप से देने का वादा लिखित में किया था। सरकार अब उस वादे से मुकर गई है और कहती है कि सेल्स टैक्स में हुए नुकसान की भरपाई के लिए राज्य आरबीआई से लोन ले लें।क्या हुआ उस वादे का? केंद्र सरकार अपने संवैधानिक दायित्व से मुकर गई। आंकड़े बताते हैं कि जीएसटी पेटे राजस्व वसूली भी कम होती जा रही है।


2. खेती का कॉरपोरेटीकरण


कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) बिल।


The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill, 2020


इस बिल ( भावी कानून ) के तहत अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान की गई है ताकि बड़े व्यवसायी और कंपनियां अनुबंध के जरिये खेती-बाड़ी के विशाल भू-भाग पर ठेका आधारित खेती कर सकें। 


कानून शब्दों का खेल होता है। अर्थ निर्धारण में शब्दों की महती भूमिका होती है। इस कानून में क़ीमत आश्वासन ( price assurance ) अर्थात किसान को कीमत का आश्वासन भर दिया गया है; इसमें कृषि उत्पादों की कीमत सुनिश्चित (ensure) करने की बात कहीं नहीं है। 


आश्वासन देना और लिखित में सुनिश्चित करना (ensure)-- इन दोनों में रातदिन का फ़र्क होता है। आश्वासन बरगलाने के लिए दिए जाते रहते हैं।


कॉरपोरेट खेती के लिये तर्क गढ़ा गया है कि पूँजी की कमी, छोटी जोतों में खेती अलाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी संसाधनों के उपयोग से खेती करने में अक्षमता के कारण पारिवारिक खेती करने वाले किसान खेती का उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नही हैं।


देश के कुछ क्षेत्रों में जहाँ अभी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग प्रचलन में है वहाँ देखने में आता है कि जब करार के आधार पर बुवाई की गई फसल की कीमत बाजार में कम हो जाती है तो कम्पनी उत्पाद की गुणवत्ता पर सवाल उठा कर क्रय करने से बच जाती है क्योंकि कृषि जिंसों की गुणवत्ता निर्धारण के बहुत स्पष्ट मापदण्ड नहीं है।


भारत में किसी भी व्यक्ति या कम्पनी को एक सीमा से से अधिक कृषि भूमि खरीदने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबंधित करता है। 


मौजूदा कानून के चलते कॉरपोरेट्स को खेती पर सीधा कब्जा करना सम्भव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने का प्रयास किया जा रहा है। 


ये सब कोई न कोई बहाना बनाकर किया जा रहा है। कुछ राज्यों में अनुसन्धान और विकास, निर्यातोन्मुखी ( export- oriented ) खेती के नाम पर कृषि व्यवसाय फर्मों( बाबाओं के आधिपत्य वाली फर्मों सहित ) को खेती की जमीन आवंटित करने और खरीदने की अनुमति दी गई है। 


कहीं-कहीं पर कम्पनियों के निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती की जमीन खरीदी गई है। 


कुछ राज्य सरकारों ने नाम मात्र के मूल्य पर पट्टे पर जमीन दी है।

कॉरपोरेट खेती का मुख्य उद्देश्य लूट की व्यवस्था का वैश्विक विस्तार करना, खुले बाजार में पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन और आपूर्ति श्रंखला को एकीकृत करना है। 


कार्पोरेट्स प्रत्यक्ष स्वामित्व, पट्टा या लम्बी लीज पर जमीन लेकर खेती करेंगे या किसानों से उलझनभरी शर्तों वाला अनुबन्ध कर शर्तों की आड़ में किसानों का शोषण करेंगे।


भारत में 67 प्रतिशत किसानों की जोत का आकार 1 हेक्टेयर से कम है जबकि 18 प्रतिशत के पास 1 से 2 हेक्टेयर जमीन है जिसका मतलब यह है कि भारत में किसानों का 85% सीमांत या छोटे किसान हैं।


मात्र 2 प्रतिशत किसानों के पास ही 10 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि है। 0.7 प्रतिशत किसानों के पास कुल खेती की जमीन का 10.5 प्रतिशत हिस्सा है। 


बंटवारे के बाद सीमांत व छोटी जोतों की संख्या बढ़ रही है। जबकि भूमि के कुछ हाथों में केंद्रीकरण की नीति के कारण बड़ी जोतों के आकार में बढ़ोतरी हो रही है। 


भारत की 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी भूमिहीन है जिसमें से कुछ के पास नाम मात्रा की जमीन है। भूमिहीनों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसी स्थिति में कॉन्ट्रेक्ट खेती से छोटे किसानों को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है। 


लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी कम्पनी या व्यक्ति छोटे-छोटे जोत के किसानों के साथ अनुबंध नहीं करना चाहता है।


कंपनियों की शर्तें ऐसी उलझनभरी होंगी कि किसान की फसल में मामूली से कोई कोताई होते ही उसे खरीदा नहीं जाएगा। बड़े 'किसान' ( महज़ 0.7 प्रतिशत ) जिनमें नेतागण, भूमाफिया, ब्यूरोक्रेट्स आदि हैं उन्हें फ़ायदा जरूर पहुंच सकता है क्योंकि उनकी जोतें बड़ी हैं।


केंद्रीय कृषि मंत्री श्री तोमर कल ये दो बिल राज्य सभा में पास होने के बाद एक टेलीविजन कार्यक्रम में कह रहे थे कि इन कानूनों की बदौलत अब किसान व्यापारी से 'आंख में आंख डालकर बात करने की स्थिति में आ जाएगा' और व्यापारी खुद चलकर उसके खेत में जाएगा। 


सुनकर हँसी आ रही थी। जिस किसान के पास बेचने के लिए पांच- दस बोरी अनाज है और उसे घर खर्चे हेतु अनाज बेचने की जल्दी है, उसके पास कोई व्यापारी क्यों जाएगा? 


व्यापारी जानता है कि जरूरत किसान को है और वो उसकी मजबूरी का अधिकतम फ़ायदा उठाने से नहीं चूकता है। 


कोई व्यापारी ऐसे किसानों का धान एमएसपी पर नहीं खरीदता। हाँ, तोमर साहब जैसे नेताओ और बड़े भूपतियों के पास बड़े व्यापारी जरूर जाते रहते हैं। ख़ैर, अब ज़्यादा क्या कहें, बड़े लोगों की बड़ी बातें।


सरकार शायद यह बात भूल गई कि हमारे यहाँ 85% के लगभग 5 एकड़ से कम ज़मीन वाले किसान हैं । 


कृषि इनके लिए आजीविका का साधन है, परिवार का पेशा है जबकि सरकार इसे कॉरपोरेट सेक्टर के लिए व्यवसाय बनाना चाहती है।


केंद्रीय वित्त मंत्री ने शायद पिछले साल संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या 20 प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। 


अर्थात यह 20 प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूँजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने के लिये सक्षम होंगे।


किसानों की संख्या 20 प्रतिशत करने के लिये ऐसी परीस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि किसान मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाये जाएँ जिसके द्वारा किसानों को झाँसा देकर फँसाया जा सके। 


किसान को मेहनत का मूल्य न देकर खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाये जाने की कोशिश है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके। 


जो किसान खेती नही छोड़ेंगे उनके लिये अनुबन्ध खेती के द्वारा कार्पोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। 


देश में उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर और वर्तमान में अम्बानी- अडानी के विभिन्न प्रोजेक्ट्स के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टेयर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। 


कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए खेती के लिए जमीन के साथ- साथ कृषि उत्पादन की पूरी श्रंखला धीरे-धीरे प्राइवेट सेक्टर ,खास तौर पर कॉरपोरेट्स, के हाथों में चली जाएगी।


3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) बिल

The Essential Commodities (Amendment) Bill, 2020


सन 1955 में बने इस कानून में संशोधन कर सरकार ने अब अनाज, दालों, खाद्य तेल, प्याज, आलू को जरूरी वस्तु अधिनियम से बाहर करके इनकी स्टॉक सीमा खत्म कर दी है। 


किसान तो अपने उत्पादन को पहले भी स्टॉक करके रख सकता था। नई छूट व्यापारियों को मिली है। व्यापारी अब जितना चाहें उतना स्टॉक रख सकते हैं। एक तरह से जमाखोरी को कानूनी संरक्षण दिया गया है।


इस कानून का असर ये होगा कि आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की सीमा हटने से जमाखोरी के रास्ते खुल जाएंगे। किसानों को इससे कोई फायदा नहीं होना है? 


जो नुकसान होगा, वह उपभोक्ता भुगतेंगे। आजकल सब्जियों की जो कीमत बढ़ रही है, उसमें जमाखोरी की भी बड़ी भूमिका है और उसका फ़ायदा किसान की बजाय भंडारण करने वाले व्यापारी उठा रहे हैं।


सरकार व्यापारियों को कानूनी रूप से स्टॉक करने की छूट दे रही है। सबको पता है कि किसानों के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं है। 


सब्जी उगाने वाले किसानों के पास सब्जियों के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं है। ऐसे में उन्हें उत्पादन के बाद अपनी फसलें औने-पौने दाम पर व्यापारियों को बेचनी पड़ती हैं। 


प्राइवेट कंपनियों के पास ज्यादा क्षमता और संसाधन होते हैं, अतः वे अब कृषि जिंसों का अंधाधुंध स्टॉक करके अपने हिसाब से मार्केट को चलाएंगे। 


ऐसे में फसल की कीमत तय करने में किसानों की भूमिका नहीं के बराबर रह जाएगी। कमान बड़े व्यापारियों और कंपनियों यानी प्राइवेट प्लेयर्स के हाथ में आ जाएगी और वो ज्यादा फायदा कमाएंगे। 


रिलायंस की जिओ मार्ट, वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियां बाज़ार में अपने पैर पसारने के बाद पूंजी के बल पर असीमित भंडारण कर मनमाने दाम उपभोक्ताओं से वसूलेंगी। ब्लैक मार्केटिंग करने का एक कानूनी जरिया उन्हें मिल जाएगा।


दूरगामी परिणाम


ये कृषि सुधार कानून बड़े कॉरपोरेटों और विशाल कृषि व्यापार कम्पनियों सहित बड़े थोक व्यापारियों के पक्ष में बने हैं। किसान कल्याण की बज़ाय कॉरपोरेट कल्याण के कानून हैं। 


किसान को निर्बल कर कॉरपोरेट्स को सबल करने का प्रयास किया गया है। सरकार की मिलीभगत से कॉरपोरेट घरानें अब होंगे नए जमींदार और वे अन्नदाता कहलायेंगे।


भारत में पारिवारिक खेती कुछ वर्षों बाद कॉरपोरेट घरानों की खेती की शक़्ल अख़्तियार कर लेगी। रियासती और अंग्रेजी राज में जमींदारी प्रथा के ज़रिए किसानों की मेहनत की लूट की व्यवस्था थी। 


अब इन कानूनों के ज़रिए कृषि उत्पादों के ट्रेड एंड कॉमर्स पर कॉरपोरेट सेक्टर को एकाधिकार जमाने का मौका दे दिया गया है। 


कुछ सालों बाद कॉरपोरेट घरानों का कृषि ट्रेड एवं कॉन्ट्रैक्ट खेती पर कब्ज़ा हो जाने पर कॉरपोरेट घराने नए जमींदार होंगे और ये बदले हुए रूप की जमींदारी प्रथा स्थापित हो जाएगी।


जिओ टेलीकॉम का उदाहरण सबके सामने है। प्राइवेट सेक्टर में जब बड़ी मछली की एंट्री होती है तो छोटी मछलियां दम तोड़ देती हैं। समझने के लिए एक मिसाल और दे रहा हूँ। 


कई साल पहले पंजाब सरकार ने रोडवेज रूट पर प्राइवेट बसों के परिचालन की छूट दी तो जिनके पास दो-चार बसें थीं, उनकी बांछे खिल गईं थीं। प्राइवेट बसों के कई फ़ायदे गिनाए गए थे। 


दो- तीन साल बाद बादल परिवार इस क्षेत्र में कूद पड़ा। हुआ वही जो होना था। यात्रियों को शुरू में कुछ रियायतें दी गईं। 


बस परिचालन से जुड़े छोटे कारोबारी कंपीटिशन से बाहर होकर घर बैठ गए और हर रूट पर बादल परिवार की बसों का वर्चस्व कायम हो गया। 


शायद लोग भूल गए हैं कि वसुंधरा राजे की सरकार के अंतिम महीनों अगस्त-सितम्बर 2018 में रोडवेज की लंबी हड़ताल चली थी। हड़ताल लंबी खिंचने पर सरकार ने पंजाब से बादल परिवार की बसें मंगवा ली थी। 


पंजाब से बसों का बेड़ा जब रास्ते में था तभी विधनसभा चुनाव की तारीख की घोषणा हो गई। चुनाव आचार संहिता लगने का सहारा लेकर रोडवेज कर्मचारियों ने हड़ताल ख़त्म कर दी और रोडवेज के अमले को बचा लिया। 


इस उदाहरण से स्पष्ट है कि सरकारी तंत्र हमेशा बड़ी मछलियों के हित साधता है।


कॉरपोरेट कंपनियों ने सरकार की सरपरस्ती से देश की ग्रामीण उद्योग की कमर पहले ही तोड़ चुकी है। सारे कुटीर उद्योग बन्द हो चुके हैं। 


ग्राहकों के हितों की डुगडुगी बजाकर लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़ दिया गया। 


ग्रामीण उद्योगों में लोकल स्तर पर उत्पादित वस्तुओं को घटिया व महँगा और कम्पनी उत्पादन को सस्ता व क्वालिटी उत्पादन के रूप में प्रचारित कर मार्किट को कम्पनी प्रोडक्ट्स से भर दिया गया।


लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़कर बड़े कारखानों के प्रोडक्ट्स को प्रमोट करने में यहाँ के व्यापारियों व दुकानदारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। 


कॉरपोरेट घरानों ने अपनी कंपनी के प्रोडक्ट्स को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिये शुरुआत में स्थानीय व्यापारियों का इस्तेमाल किया और इनके जरिए अपना माल बेचा। 


अब कॉरपोरेट घरानों ने अपना माल बेचने के लिये खुद की व्यवस्था बना ली है। ऑनलाइन शॉपिंग परवान चढ़ा दी गई है। छोटे दुकानदार अब बैठे हवा खा रहे हैं क्योंकि अब कॉरपोरेट घरानों को छोटे दुकानदारों की आवश्यकता नहीं है। 


अब छोटे दुकानदार कॉरपोरेट घरानों द्वारा शुरू की गई ऑनलाइन शॉपिंग को कोसते रहते हैं। बाजार पर कॉरपोरेट्स का दबदबा कायम करने में इन छोटे-मोटे व्यापारियों ने शुरुआत में ख़ूब मदद की थी। 


लालच में आकर ग्रामीण उद्योगों के प्रोडक्ट्स से अपना मुँह मोड़कर ख़ुद को कार्पोरेट के हवाले कर दिया था।


भारत का 90% रिटेल बिज़नेस असंगठित ( unorganized ) है, जिसमें किराना, कपड़ा, दूध, सब्जियां, दवाई, होजरी आदि शामिल हैं। 


अब रिलायंस ने अपनी रिटेल बिजनेस पर पकड़ मजबूत करने के लिए फ्यूचर रिटेल (बिग बाजार) नाम की कंपनी को खरीद लिया है। 


आने वाले चार-पांच सालों में जब मध्यवर्गीय उपभोक्ता कॉरपोरेट्स के स्टोर्स और उनसे ऑनलाइन शॉपिंग करने लग जाएगा तब इन छोटे दुकानदारों को भी 'आज़ादी' मिल जाएगी और 'आज़ादी' का मतलब भी इन्हें समझ में आ जाएगा।


वैसे 'आज़ादी' का कुछ मिठास तो इन्हें कोविड-19 महामारी के दौरान मिल चुका है। विडम्बना देखिए कि छोटे दुकानदारों की दुकानदारी ग़रीब जनता की ग्राहकी पर ही टिकी हुई है और वे उन्हीं ग़रीब ग्राहकों से सामान की अनुचित क़ीमत वसूलते हैं।


खैर, किसान कल्याण की डुगडुगी बजाकर पारित करवाए गए इन बिलों से किसान तो बरबाद होंगे ही पर इसका असर रिटेल व्यापार (किराना, कपड़ा, दूध, फल-सब्जी के दुकानदार) और मध्यवर्गीय शहरी उपभोक्ताओं पर भी पड़ना लाज़िम है। 


सरकारी तंत्र के प्रचार-प्रसार और पालतू मीडिया के झूठे नैरेटिव के सुनहरे आवरण में कुरूप हक़ीक़त को छुपाने का काम कर रहे हैं और लोग झूठ की वाहवाही कर रहे हैं।


एक ख़तरा और भी है। जी.एस.टी. प्रणाली के ज़रिए केंद्र का सभी व्यापारिक व वाणिज्य मामलों में दख़ल बढ़ गया है। 


इन बिलों से हमारे संविधान में उल्लिखित संघीय ढ़ाँचे पर भी प्रहार हुआ है। राज्यों के टैक्स के रास्ते ( avenues ) को केंद्र सरकार धीरे- धीरे बंद कर रही है और उन्हें खुद हड़पति जा रही है ताकि राज्य सरकारें केंद्र के रहमो- करम पर निर्भर हो जाएं।


वैसे किसानों को बरगलाने का क्रम सदा से चलता रहा है। मसलन, कृषि जिंसों का वायदा कारोबार जब शुरू हुआ था तब इसके ख़ूब लाभ गिनाए गए थे, जैसे किसान फसल का एडवांस में सौदा तय कर सकेगा, किसान को MSP से ज्यादा भाव मिलेगा, देश में सभी किसानों को एक भाव मिलेगा आदि। 


वो सब वादे खोखले साबित हुए। हक़ीक़त सामने ये आई कि आवश्यक वस्तुओं ( essential commodities ) का भाव कम या ज्यादा करना सटोरियों के हाथ में है। बिना किसी शारीरिक श्रम के भारी लाभ भी वे ही कमाते हैं। 


वायदा कारोबार और सट्टे में ज्यादा अन्तर नहीं है। अब ये किसानों के समझ में आ चुकी है। 'एक देश, एक बाज़ार' के वादे का भी ये ही हश्र होना है।


कुछ सज्जन कहते हैं कि इन कानूनों से गाँवों में किसान व्यापारी बन जाएंगे और दूसरे किसानों से अनाज खरीदकर लाभ कमा सकेंगे। 


वैसे अब भी ये काम हर गाँव में दो -तीन लोग करते हैं। लेकिन गाँव में पूंजी की कमी, स्टॉक करने की व्यवस्था का अभाव और बाजार में कीमतों की अनिश्चितता के कारण उनके कई बार घाटा उठाना पड़ता है। 


इसका सबसे ज्यादा चर्चित उदाहरण पेश कर रहा हूँ। साल 2012 में गुंवार के भाव बाज़ार में अप्रत्याशित रूप में ऊंचे चढ़े। माना जाता है कि भावों को इतना ऊंचा चढ़ाने में गंगानगर ( राजस्थान ) के उद्योगपति श्री बी. डी. अग्रवाल और नोखा के कुछ व्यापारियों का हाथ था। 


व्यापारी फ़ायदा उठाते रहे। माल इधर से उधर करते रहे। गाँवों में कई लोग व्यापारी बनकर घूमने लगे। गुंवार खरीदा, स्टॉक किया और ऊंचे भाव के लालच में मैदान में डटे रहे। 


जब गुंवार के भाव 20 हज़ार के लगभग पहुंचे तब तक ज्यादातर किसानों ने अपना गुंवार बेच चुके थे। उस गुंवार से व्यापारी चांदी कूटते रहे। फिर क्या हुआ? वही जो बाजार रची राखा। 


40 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल बिक चुके गुंवार का भाव बाज़ार में सटोरियों के दबाब में 7 हज़ार और बाद में 5 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल पर आ टिका। गाँवों में उस सदमें से कुछ लोग अब तक उबरे नहीं हैं। क़ीमतों का जंजाल कुछ ऐसा है कि बाज़ार की माया बाजार ही जाने।


बड़े व्यापारी किसानों को कैसे बरगलाते हैं, इसका एक क्लासिक किस्सा पूंजीपति अग्रवाल से ही जुड़ा है। गुंवार के भाव जिस साल आसमान छू रहे थे, उस साल महाशय बी .डी अग्रवाल ने किसानों को अगले साल सिर्फ गुंवार की बुवाई कर धन कमाने का गुरुमंत्र दिया। 


ऊंचे दाम पर फसल खरीदने का आश्वासन देकर एडवांस में कुछ राशि भी किसानों को दी। साल 2013 में राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले 'जमींदारा पार्टी' बनाई। खुद अध्यक्ष बने। 


चुनाव में अपनी बेटी कामिनी जिंदल सहित कुछ उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा। किसानों ने दिल खोलकर वोट देकर उनकी बेटी और एक अन्य उम्मीदवार को जिताया। 


बाद में किसान गुंवार की फसल को 5 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचकर घर बैठ गए। आश्वासन का हश्र क्या होता है, इसे समझने के लिए क्या ये मिसाल काफी नहीं है?


ये आलेख अभी तैयार कर रहा था तभी खबर मिली कि किसी समय 'गुंवार किंग' माने जाने वाले श्री बी. डी. अग्रवाल की कोविड-19 से मृत्यु हो गई है। दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थना करता हूँ।


काश, ऐसा किया जाता!


कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, "गांवों-किसानों के हित में हमारा अच्छा मॉडल है एपीएमसी मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य का, जो हमने कहीं से उधार नहीं लिया। अभी पूरे देश में 7,000 मंडियां हैं, हमें चाहिए 42,000 मंडियां। 


नए प्रावधानों के बाद सब बोल रहे हैं कि किसानों को अच्छा दाम मिलेगा। अच्छा दाम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही होना चाहिए, तो फिर समर्थन मूल्य को पूरे देश में वैध क्यों न कर दिया जाए?"


यह बात सर्वविदित है कि मंडी सिस्टम में कई खामियां हैं। राजनीतिक रूप से रसूखदारों का बोलबाला है। 


छोटे किसानों को तरज़ीह नहीं मिलती। कहने को 23 रबी -ख़रीफ़ फ़सलों के लिए एम.एस.पी की व्यवस्था है पर खरीद सिर्फ़ गेंहू और कुछ धान की ही होती है। सभी कृषि उत्पादों का एमएसपी निर्धारित होना चाहिए। 


एमएसपी से कम पर किसान के उत्पादों को खरीदने पर खरीदने वाले व्यापारी को सजा देने का प्रावधान किया जाना चाहिए।


मंडी सिस्टम की खामियों को दूर करने का प्रयास करने की बज़ाय किसानों के लिए बनाए गए इस आंशिक सुरक्षा कवच को ही सरकार ने व्यापारियों का हित साधने के लिए नष्ट करने की ठान ली है। 


कृषि विषयों की समझ रखने वाले योगेन्द्र यादव ठीक कहते हैं कि, 'किसान के सिर पर अभी तक एक टूटी फूटी सी छत थी, अब नया कानून बनाकर उसे भी हटाया जा रहा है।'


इसमें मैं इतनी बात और जोड़ देता हूँ कि सरकार किसानों के सिर पर से यह छत ये दुहाई देकर तोड़ रही है कि इससे किसान आज़ाद होकर खुले में मौसमों की मार सहकर सशक्त हो जाएंगे, 'आत्मनिर्भर' हो जाएंगे।


भारत की खेती को लाभकारी बनाने के लिए जरूरी है की मूल्य निर्धारण में जोखिम उठाने का पारिश्रमिक भी जोड़ा जाए और किसानों के जीवन यापन के तत्व को भी उसमें शामिल किया जाए।


स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों की सम्पूर्ण लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर समर्थन मूल्य देने, बाजार में किसान के मोलभाव की ताकत को बढ़ाने के लिए इस मूल्य पर हर कृषि उत्पाद की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने की जरूरत है।




उद्योग और व्यापार इन दो क्षेत्रों पर पूंजीपतियों एवं कॉरपोरेट h घरानों का पहले से ही एकाधिकार रहा है।


कृषि क्षेत्र अभी तक कॉरपोरेट सेक्टर के शिकंजे से दूर था। इस बात की इन्हें बड़ी तिलमिलाहट थी। 


सरकार की मेहरबानी से प्राकृतिक संसाधनों, उद्योग और व्यापार पर तो कॉरपोरेट घरानों ने पहले ही कब्जा कर रखा है। 


अब खेती पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि अपने उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरूरी उत्पादन अपनी सुविधाओं के अनुसार कर सकें।


खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात- निर्यात आदि सभी पर कॉरपोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं। 


दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये जैव ईंधन, फलों, फूलों या खाद्यान्न खेती भी दुनिया की बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते है।


मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में नीति आयोग ने कृषि क्षेत्र में सुधार की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। 


इसमें जिन नीतियों की वकालत की गई है, उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं। 


कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की भूमिका बढ़ाने पर है। नए कानून एक तरह से भारत में 'कृषि के निजीकरण' का रोडमैप हैं।


सरकार ने अब कॉरपोरेट घरानों की हितों को साधते हुए खेती का भी कॉरपोरेटीकरण करने की ठान ली है। 


अज़ीब बात ये है कि ये सब किसान कल्याण की दुहाई देकर किया जा रहा है। अब उद्योग, व्यापार और खेती-- सब कुछ कॉरपोरेट्स करेंगे। 


मेहनतकश जनता की मेहनत की लूट अब सब क्षेत्रों में कानूनी रूप से होगी। आजादी के बाद किसान के साथ जो अन्नदाता का टैग जुड़ा था, वह भी उनसे छीनकर कालांतर में कॉरपोरेट घरानों के साथ जोड़ दिया जाएगा। 


वर्तमान पीढ़ी को शायद ये पता नहीं है कि आज़ादी से पहले रियासतों में राजा और जमींदार को ही अन्नदाता कहकर संबोधित किया जाता था। अन्न उपजाते थे किसान और अन्नदाता कहलाते थे राजा व जमींदार।


सरकार  कहती है कि 70 साल बाद आज ये बिल पास होने पर किसान आज़ाद हुए हैं। इससे ज़्यादा बेहूदी बात और क्या हो सकती है? 


ये बात वे नेता कह रहे हैं जिनके पुरखों का आज़ादी के आंदोलन से दूर -दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है। उनकी भूमिका हुंकारियों, हाज़रियों और हुज़ूरीयों की रही है। 


आज़ादी की लड़ाई हो या राष्ट्रीय आपदा का दौर हो या खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने का मामला हो --इन सब में किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 


जिनकी लड़ाई और त्याग की बदौलत जिन्हें बैठे-बिठाए आजादी मिली, वे आज किसानों को आज़ादी का तोहफ़ा देने की बात कर रहे हैं। बस, ज़हन में ये पंक्तियाँ कौंधती हैं:


गुलिस्ताँ को लहू की जरूरत पड़ी

सबसे पहले ही गर्दन हमारी कटी !

फिर भी कहते हैं मुझसे ये अहले वतन

ये चमन है हमारा तुम्हारा नहीं है !!


इन तीनों बिलों ( भावी कानून ) की सिलसिलेवार विवेचना कर लेते हैं:


1. किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) बिल ( The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Bill, 2020)


किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य बिल के बारे में प्रधानमंत्री जी सहित सभी मंत्री जोर देकर कहा रहे हैं कि अब किसान को अपनी फसल कहीं भी बेचने की आज़ादी दे दी गई है। 


ये आज़ादी तो पहले से है। ऐसा कोई कानून नहीं बना हुआ है जो किसान पर अपनी फसल मंडी से बाहर कहीं पर भी बेचने की पाबंदी थोपता है। इस मामले में सरकार जनता को समझा नहीं पा रही है।


मसलन, राजस्थान के चूरू, बीकानेर आदि जिलों में पंजाब के लोग गेंहू और चावल ट्रेक्टर/पिक अप में लादकर लाते हैं और कस्बों- गाँवों में घूमकर बेचकर जाते हैं। महाराष्ट्र का प्याज, कश्मीर के सेब राजस्थान में धड़ल्ले से बिक ही रहा है। असली बात है वाज़िब कीमत की। वो किसान को मिले, इसकी गैरन्टी ये बिल नहीं देता है।


मंडी से बाहर अब भी किसान फसल बेचने को मजबूर हैं क्योंकि मंडी में गेंहू समेत कुछ धान की ही खरीद होती है और वो भी सीमित मात्रा में तथा खरीद भी विलंब से शुरू होती है। पंजाब और हरियाणा को छोड़कर अन्य राज्यों में मंडियों की संख्या सीमित है। 


मंडी से बाहर किसान के धान की खरीद व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) से कम पर करते हैं और उसके भुगतान पर कई कटौतियां ( जैसे तुलाई, ढुलाई, काटा आदि ) करते हैं। किसान को ये सारे नुकसान सहने पड़ते हैं।


मंडियां दूर दूर स्थित होने, मंडियों की संख्या सीमित होने और वहाँ भी सीमित धान की खरीद होने के कारण अधिकांश किसान अपनी फसल मंडी से बाहर बेचने को मजबूर हैं। 


अज़ीब बात है कि जो काम किसानों को मजबूरी में घाटा सहन कर करना पड़ता है, उसे ये सरकार किसान को आज़ादी का तोहफ़ा मानती है। 


सरकार द्वारा गठित शांता कुमार समिति मानती है कि देश में सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है और 94 प्रतिशत किसान खुले बाजार पर निर्भर हैं। 


इससे स्पष्ट है, अगर खुला बाजार अच्छा होता, तो किसानों की समस्या इतनी क्यों बढ़ती? अगर खुले बाजार में किसानों को उचित मूल्य या फ़ायदा मिल रहा होता, तो वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग क्यों करते?


बिल में कहीं भी ये लिखा हुआ नहीं है कि मंडी से बाहर भी व्यापारी को किसान की फसल MSP या इससे अधिक पर खरीदनी होगी। इसमें तो व्यापारी को छूट है कि वो अपने हिसाब से, अपनी शर्तों से, अपने स्तर पर अपनी मनमर्जी से कीमत तय कर सकेगा। 


बाजार में संगठन व्यापारियों का है ना कि किसानों का। क्या सरकार इस बात से अनभिज्ञ है? नया कानून तो ये कहता है कि किसान की उपज का मूल्य बाजार तय करेगा।


कृषि मंत्री खुद ने बिल पर चर्चा के बाद राज्य सभा में जबाब देते हुए कहा है कि इन बिलों का एमएसपी से कोई 'लेनादेना' नहीं है। 


हाँ, यही शब्द कहे हैं। किसान यही तो मांग कर रहे हैं कि मंडी से बाहर भी उनकी फसल की खरीद एमएसपी पर करने की गैरन्टी का प्रावधान इन बिलों में किया जाना चाहिए। 


किसान ये ही तो मांग कर रहे हैं कि इस कानून में मंडी के बाहर कृषि उत्पादन को एमएसपी पर खरीदने की शर्त लिखी नहीं गई है, उसे लिखा जाना चाहिए। मुख्य मांग ये ही तो है। सरकार है कि व्यापारियों का हित साधते हुए ये काम करना नहीं चाहती।


होना तो ये चाहिए था कि कानून में ऐसा प्रावधान किया जाता, जिससे व्यापारी मंडी से बाहर किसान की उपज की खरीद एमएसपी या उससे ऊपर करने के लिए बाध्य होता। 


ऐसा नहीं करने वाले व्यापारी को सजा दिए जाने का प्रावधान किया जाता। पर ये कानून तो ये कहता है कि किसान की उपज का मूल्य बाजार तय करेगा। कीमतें तय करने की कोई मैकेनिज्म भी इस बिल में नहीं दी गई है। 


कोई पैरामीटर्स तय नहीं किए गए हैं। इसलिए डर है कि कुछ समय बाद स्थानीय बाजार भी ध्वस्त होने के बाद कॉरपोरेट कंपनियां अपनी मनमानी करेंगी।


देश में कहीं पर भी फसल बेचने का ज्ञान किसानों को पेलने वाले ये समझ लें कि किसान की फसल कोई बनी हुई चाय नहीं है जिसे केतली में डालकर ट्रैन में बैठकर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर जाकर बेचा जा सके। 


फसल कोई फैक्टरी प्रोडक्ट- जैसे कंघी, टूथपेस्ट- नहीं है जिसे बैग में डालकर दूसरे राज्य में जाकर आसानी से बेचा जा सके। 


किसान अपना उत्पाद ट्रक/ट्रेक्टर में लादकर, भारी भाड़ा वहन कर किसी भी राज्य के बाजार में चला जाए, उसको लूटने वाले व्यापारी हर बाजार में संगठित मिलेंगे। कोई गैरन्टी नहीं है कि किसान को फसल के इतने दाम मिल जाएंगे कि माल ढुलाई सहित पूरी लागत निकल आएगी। 


किसी भी राज्य में चले जाइए, व्यापारियों का किसान के साथ सलूक शोषण करने का रहता है।

धोखाधड़ी के मामले बढ़ेंगे

ऐसे अनेक मामले सामने आते रहते हैं जिनमें कई किसान अपंजीकृत व्यापारियों के झांसे में आकर धोखे के शिकार हो रहे हैं। 


कृषि मंडियों में कृषि उपज विपणन समितियों ( Agriculture Produce Market Committee --APMC ) एक्ट के तहत वेरिफिकेशन के बाद ही व्यापारी को मंडी में खरीद करने का लाइसेंस मिलता है। 


ऐसे में किसान आश्वस्त रहते हैं कि मंडी में व्यापारी धोखाधड़ी नहीं करेगा। नया कानून जो बनने जा रहा है उसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैन कार्ड है, वह व्यापारी के रूप में किसान से फसल खरीद सकता है।


चूंकि नए कानून के अनुसार बिना लाइसेंस वाला कोई भी व्यक्ति, बस जिसके पास पैन कार्ड है, वह व्यापारी के रूप में किसान की फसल खरीद सकता है। किसान को भुगतना भी उसे तत्काल करने की जरूरत नहीं है। 


खरीददार को तीन दिन की मोहलत ये कानून देता है। लाइसेंसधारी नहीं होने के कारण खरीददार व्यापारी को लेन-देन का उचित रिकॉर्ड भी नहीं रखना होगा। 


ऐसी स्थिति में किसान धोखाधड़ी का शिकार होने पर कानून की मदद कैसे ले सकते हैं? किसी बिना लाइसेंस व अपंजीकृत व्यापारी को कैसे ढूंढा जा सकता है?


मंडी सिस्टम ख़त्म कैसे होगा?

लोग कहते हैं कि बिल में मंडी व्यवस्था और एमएसपी ख़त्म करने की बात नहीं की गई है। ये बात सही है पर बिल लाने की मंशा इन्हें ख़त्म करने की है। 


कैसे? थोड़ी सी समझ वाला व्यक्ति भी समझ सकता है। हाथ कंगन को आरसी क्या? टेलीकॉम के क्षेत्र में प्रधानमंत्री जी ने जिओ कंपनी को प्रमोट किया था। प्रचारक के रूप में विज्ञापनों में खुद की फ़ोटो छपवाई थी। 


शुरू में फ्री किया गया। हमनें आशंका व्यक्त की थी कि ये सब सरकारी कंपनी बीएसएनएल और अन्य कंपनियों को रास्ते से हटाने की सोची समझी साज़िश है। दो साल में ही वो आशंका हक़ीक़त में बदल गई। 


सरकार ने सार्वजनिक उपक्रम बीएसएनएल को ध्वस्त कर कर्मचारियों को घर बैठा दिया है। ऐसा ही हश्र मंडियों का होना तय है। मंडी में व्यापारी को टैक्स चुकाना होगा, लाइसेंस लेना होगा। बाहर कोई भी टैक्स नहीं देना होगा, 


इसलिए कोई भी व्यापारी मंडी में खरीद क्यों करेगा?


मंडी से किसानों को विमुख करने के लिए शुरू में व्यापारी किसानों की फ़सल खरीदते समय उन्हें कुछ ज़्यादा मूल्य देने की चाल चलेंगे क्योंकि बाहर उन्हें मंडी टैक्स नहीं देना पड़ता है। 


पर मंडी सिस्टम ध्वस्त होते ही व्यापारी एकजुट होकर किसान उत्पादों की वैसी ही लूट मचाएंगें जो इन मंडियों के वजूद में आने से पहले हुआ करती थी। आज की पीढ़ी इस बात से अनभिज्ञ है।


पंजाब और हरियाणा में मंडियों का नेटवर्क पुख्ता है। इसलिए इन दो राज्यों के अधिकांश किसानों के गेंहू व अन्य धान की खरीद मंडियों में एमएसपी पर हो जाती है। 


मंडियों में वसूले जाने वाले टैक्स से ग्रामीण सड़कों का मजबूत नेटवर्क है। इसी वजह से पंजाब और हरियाणा के किसान इन नए कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।


मंडी व्यवस्था की बदौलत आज देश के एफ.सी.आई. के गोदामों में लगभग 750 लाख टन गेँहू ,चावल के बफर-स्टॉक भरे हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान शहरों से मज़दूरों के पलायन के संकट के दौरान 80 करोड़ जरूरतमंद जनता को इसी भंडार से अन्न बांटा गया है। 


मंडी ख़त्म होने का मतलब एफसीआई के गोदाम भी खाली रहेंगे।


एक देश, दो बाजार


अब जब वैध रूप से मंडी के बाहर भी अनाज बिकेगा, तो सरकार के एक देश, एक बाजार के दावे की पोल खुल जाएगी। 


ये तो एक देश, दो बाजार हो जाएगा। एक मंडी में और दूसरा मंडी से बाहर। मंडी में जो खरीद होगी, उस पर व्यापारी को टैक्स देना होगा, लेकिन मंडी के बाहर होने वाली खरीद पर उसे कोई टैक्स नहीं देना होगा। 


ऐसी स्थिति में मंडी सिस्टम का धराशायी होना तय है।

खाली मंडियों का आगे चलकर बेचान होना भी तय है। खरीददार कौन होंगे? वही कॉरपोरेट्स। 


इस बेचान को किसान- कल्याण के नाम की डुगडुगी बजाकर किया जाएगा और इसके लिए सरकार ने एक बड़ा सा शब्द खोज रखा है और वह है, विनिवेश ( disinvestment )।


झूठ पर झूठ


बिचौलियों की रट लगाकर कॉरपोरेट घरानों को कृषि जिंसों की खरीद कर उसके भंडारण की खुली छूट देने की साज़िश है। 


क्या कॉरपोरेट घरानों के मालिक खुद सीधे किसानों से खरीद करेंगे? कतई नहीं। ये काम कॉरपोरेट्स के दलाल और कारिंदों की फौज करेगी। 


क्या उन्हें बिचौलिये नहीं कहकर कृपालु कहा जाएगा ? सीधी सी बात है कि किसान को छोटी मछलियों से बचाने के नाम पर उसका मुकाबला शार्क या मगरमच्छ से करवा दिया गया है। 


अंदेशा है कि मंडी सिस्टम धराशायी होने पर फसलों के दाम तय करने का पूरा अधिकार कॉरपोरेट घरानों के हाथ मे चला जायेगा।

 प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि मंडी और एमएसपी खत्म नहीं होगी। 

प्रधानमंत्री जी, आप और रेलमंत्री जी बार बार कहते रहे हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। ट्रैक, ट्रैन, प्लेटफार्म, इन सबका धड़ल्ले से निजीकरण करते जा रहे हो और कहते हो कि ये सब यात्री हित में है। 


जिओ टेलीकॉम का प्रचार करते समय भी आप कहते थे कि इससे बीएसएनएल पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। बीएसएनएल रसातल में जा चुका है। कर्मचारियों को घर बैठा दिया गया है। 


इंफ्रास्ट्रक्चर को बेचने की प्रक्रिया जारी है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के तीन हज़ार कर्मचारी नौकरी से निकाले जा रहे हैं। संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि कर्मचारियों को बेहतर विकल्प दिया गया है। 


शब्दों से खेलना और निर्लज्जता से उनके अर्थ बदलना कोई इस सरकार से सीखे। दुनिया की पहली सरकार है जो कर्मचारियों को नौकरी से निकालने को बेहतर विकल्प देना कहती है।


नोटबन्दी के समय कालेधन की कमर तोड़ने की बात कही थी। पूंजीपतियों का तो कुछ बिगड़ा नहीं। इसकी सारी मार गरीब जनता को झेलनी पड़ी। जीएसटी कानून लागू करते समय भी बढ़चढ़ कर वादे किए गए थे। 


रात को 12 बजे संसद भवन में बैठक आयोजित की गई थी। नई आज़ादी का जश्न मनाया गया था। राज्यों का हिस्सा निर्बाध रूप से देने का वादा लिखित में किया था। 


सरकार अब उस वादे से मुकर गई है और कहती है कि सेल्स टैक्स में हुए नुकसान की भरपाई के लिए राज्य आरबीआई से लोन ले लें। 


क्या हुआ उस वादे का? केंद्र सरकार अपने संवैधानिक दायित्व से मुकर गई। आंकड़े बताते हैं कि जीएसटी पेटे राजस्व वसूली भी कम होती जा रही है।


2. खेती का कॉरपोरेटीकरण


कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) बिल।


The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill, 2020


इस बिल ( भावी कानून ) के तहत अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान की गई है ताकि बड़े व्यवसायी और कंपनियां अनुबंध के जरिये खेती-बाड़ी के विशाल भू-भाग पर ठेका आधारित खेती कर सकें। 


कानून शब्दों का खेल होता है। अर्थ निर्धारण में शब्दों की महती भूमिका होती है। इस कानून में क़ीमत आश्वासन ( price assurance ) अर्थात किसान को कीमत का आश्वासन भर दिया गया है; इसमें कृषि उत्पादों की कीमत सुनिश्चित (ensure) करने की बात कहीं नहीं है। 


आश्वासन देना और लिखित में सुनिश्चित करना (ensure)-- इन दोनों में रातदिन का फ़र्क होता है। आश्वासन बरगलाने के लिए दिए जाते रहते हैं।


कॉरपोरेट खेती के लिये तर्क गढ़ा गया है कि पूँजी की कमी, छोटी जोतों में खेती अलाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी संसाधनों के उपयोग से खेती करने में अक्षमता के कारण पारिवारिक खेती करने वाले किसान खेती का उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नही हैं।


देश के कुछ क्षेत्रों में जहाँ अभी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग प्रचलन में है वहाँ देखने में आता है कि जब करार के आधार पर बुवाई की गई फसल की कीमत बाजार में कम हो जाती है तो कम्पनी उत्पाद की गुणवत्ता पर सवाल उठा कर क्रय करने से बच जाती है क्योंकि कृषि जिंसों की गुणवत्ता निर्धारण के बहुत स्पष्ट मापदण्ड नहीं है।


भारत में किसी भी व्यक्ति या कम्पनी को एक सीमा से से अधिक कृषि भूमि खरीदने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबंधित करता है। 


मौजूदा कानून के चलते कॉरपोरेट्स को खेती पर सीधा कब्जा करना सम्भव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने का प्रयास किया जा रहा है। 


ये सब कोई न कोई बहाना बनाकर किया जा रहा है। कुछ राज्यों में अनुसन्धान और विकास, निर्यातोन्मुखी ( export- oriented ) खेती के नाम पर कृषि व्यवसाय फर्मों( बाबाओं के आधिपत्य वाली फर्मों सहित ) को खेती की जमीन आवंटित करने और खरीदने की अनुमति दी गई है। 


कहीं-कहीं पर कम्पनियों के निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती की जमीन खरीदी गई है। 


कुछ राज्य सरकारों ने नाम मात्र के मूल्य पर पट्टे पर जमीन दी है।

कॉरपोरेट खेती का मुख्य उद्देश्य लूट की व्यवस्था का वैश्विक विस्तार करना, खुले बाजार में पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन और आपूर्ति श्रंखला को एकीकृत करना है। 


कार्पोरेट्स प्रत्यक्ष स्वामित्व, पट्टा या लम्बी लीज पर जमीन लेकर खेती करेंगे या किसानों से उलझनभरी शर्तों वाला अनुबन्ध कर शर्तों की आड़ में किसानों का शोषण करेंगे।


भारत में 67 प्रतिशत किसानों की जोत का आकार 1 हेक्टेयर से कम है जबकि 18 प्रतिशत के पास 1 से 2 हेक्टेयर जमीन है जिसका मतलब यह है कि भारत में किसानों का 85% सीमांत या छोटे किसान हैं।


मात्र 2 प्रतिशत किसानों के पास ही 10 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि है। 0.7 प्रतिशत किसानों के पास कुल खेती की जमीन का 10.5 प्रतिशत हिस्सा है। 


बंटवारे के बाद सीमांत व छोटी जोतों की संख्या बढ़ रही है। जबकि भूमि के कुछ हाथों में केंद्रीकरण की नीति के कारण बड़ी जोतों के आकार में बढ़ोतरी हो रही है। 


भारत की 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी भूमिहीन है जिसमें से कुछ के पास नाम मात्रा की जमीन है। भूमिहीनों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसी स्थिति में कॉन्ट्रेक्ट खेती से छोटे किसानों को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है। 


लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी कम्पनी या व्यक्ति छोटे-छोटे जोत के किसानों के साथ अनुबंध नहीं करना चाहता है।


कंपनियों की शर्तें ऐसी उलझनभरी होंगी कि किसान की फसल में मामूली से कोई कोताई होते ही उसे खरीदा नहीं जाएगा। बड़े 'किसान' ( महज़ 0.7 प्रतिशत ) जिनमें नेतागण, भूमाफिया, ब्यूरोक्रेट्स आदि हैं उन्हें फ़ायदा जरूर पहुंच सकता है क्योंकि उनकी जोतें बड़ी हैं।


केंद्रीय कृषि मंत्री श्री तोमर कल ये दो बिल राज्य सभा में पास होने के बाद एक टेलीविजन कार्यक्रम में कह रहे थे कि इन कानूनों की बदौलत अब किसान व्यापारी से 'आंख में आंख डालकर बात करने की स्थिति में आ जाएगा' और व्यापारी खुद चलकर उसके खेत में जाएगा। 


सुनकर हँसी आ रही थी। जिस किसान के पास बेचने के लिए पांच- दस बोरी अनाज है और उसे घर खर्चे हेतु अनाज बेचने की जल्दी है, उसके पास कोई व्यापारी क्यों जाएगा? 


व्यापारी जानता है कि जरूरत किसान को है और वो उसकी मजबूरी का अधिकतम फ़ायदा उठाने से नहीं चूकता है। 


कोई व्यापारी ऐसे किसानों का धान एमएसपी पर नहीं खरीदता। हाँ, तोमर साहब जैसे नेताओ और बड़े भूपतियों के पास बड़े व्यापारी जरूर जाते रहते हैं। ख़ैर, अब ज़्यादा क्या कहें, बड़े लोगों की बड़ी बातें।


सरकार शायद यह बात भूल गई कि हमारे यहाँ 85% के लगभग 5 एकड़ से कम ज़मीन वाले किसान हैं । 


कृषि इनके लिए आजीविका का साधन है, परिवार का पेशा है जबकि सरकार इसे कॉरपोरेट सेक्टर के लिए व्यवसाय बनाना चाहती है।


केंद्रीय वित्त मंत्री ने शायद पिछले साल संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या 20 प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। 


अर्थात यह 20 प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूँजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने के लिये सक्षम होंगे।


किसानों की संख्या 20 प्रतिशत करने के लिये ऐसी परीस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि किसान मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाये जाएँ जिसके द्वारा किसानों को झाँसा देकर फँसाया जा सके। 


किसान को मेहनत का मूल्य न देकर खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाये जाने की कोशिश है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके। 


जो किसान खेती नही छोड़ेंगे उनके लिये अनुबन्ध खेती के द्वारा कार्पोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। 


देश में उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर और वर्तमान में अम्बानी- अडानी के विभिन्न प्रोजेक्ट्स के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टेयर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। 


कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए खेती के लिए जमीन के साथ- साथ कृषि उत्पादन की पूरी श्रंखला धीरे-धीरे प्राइवेट सेक्टर ,खास तौर पर कॉरपोरेट्स, के हाथों में चली जाएगी।


3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) बिल

The Essential Commodities (Amendment) Bill, 2020


सन 1955 में बने इस कानून में संशोधन कर सरकार ने अब अनाज, दालों, खाद्य तेल, प्याज, आलू को जरूरी वस्तु अधिनियम से बाहर करके इनकी स्टॉक सीमा खत्म कर दी है। 


किसान तो अपने उत्पादन को पहले भी स्टॉक करके रख सकता था। नई छूट व्यापारियों को मिली है। व्यापारी अब जितना चाहें उतना स्टॉक रख सकते हैं। एक तरह से जमाखोरी को कानूनी संरक्षण दिया गया है।


इस कानून का असर ये होगा कि आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की सीमा हटने से जमाखोरी के रास्ते खुल जाएंगे। किसानों को इससे कोई फायदा नहीं होना है? 


जो नुकसान होगा, वह उपभोक्ता भुगतेंगे। आजकल सब्जियों की जो कीमत बढ़ रही है, उसमें जमाखोरी की भी बड़ी भूमिका है और उसका फ़ायदा किसान की बजाय भंडारण करने वाले व्यापारी उठा रहे हैं।


सरकार व्यापारियों को कानूनी रूप से स्टॉक करने की छूट दे रही है। सबको पता है कि किसानों के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं है। 


सब्जी उगाने वाले किसानों के पास सब्जियों के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं है। ऐसे में उन्हें उत्पादन के बाद अपनी फसलें औने-पौने दाम पर व्यापारियों को बेचनी पड़ती हैं। 


प्राइवेट कंपनियों के पास ज्यादा क्षमता और संसाधन होते हैं, अतः वे अब कृषि जिंसों का अंधाधुंध स्टॉक करके अपने हिसाब से मार्केट को चलाएंगे। 


ऐसे में फसल की कीमत तय करने में किसानों की भूमिका नहीं के बराबर रह जाएगी। कमान बड़े व्यापारियों और कंपनियों यानी प्राइवेट प्लेयर्स के हाथ में आ जाएगी और वो ज्यादा फायदा कमाएंगे। 


रिलायंस की जिओ मार्ट, वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियां बाज़ार में अपने पैर पसारने के बाद पूंजी के बल पर असीमित भंडारण कर मनमाने दाम उपभोक्ताओं से वसूलेंगी। ब्लैक मार्केटिंग करने का एक कानूनी जरिया उन्हें मिल जाएगा।


दूरगामी परिणाम


ये कृषि सुधार कानून बड़े कॉरपोरेटों और विशाल कृषि व्यापार कम्पनियों सहित बड़े थोक व्यापारियों के पक्ष में बने हैं। किसान कल्याण की बज़ाय कॉरपोरेट कल्याण के कानून हैं। 


किसान को निर्बल कर कॉरपोरेट्स को सबल करने का प्रयास किया गया है। सरकार की मिलीभगत से कॉरपोरेट घरानें अब होंगे नए जमींदार और वे अन्नदाता कहलायेंगे।


भारत में पारिवारिक खेती कुछ वर्षों बाद कॉरपोरेट घरानों की खेती की शक़्ल अख़्तियार कर लेगी। रियासती और अंग्रेजी राज में जमींदारी प्रथा के ज़रिए किसानों की मेहनत की लूट की व्यवस्था थी। 


अब इन कानूनों के ज़रिए कृषि उत्पादों के ट्रेड एंड कॉमर्स पर कॉरपोरेट सेक्टर को एकाधिकार जमाने का मौका दे दिया गया है। 


कुछ सालों बाद कॉरपोरेट घरानों का कृषि ट्रेड एवं कॉन्ट्रैक्ट खेती पर कब्ज़ा हो जाने पर कॉरपोरेट घराने नए जमींदार होंगे और ये बदले हुए रूप की जमींदारी प्रथा स्थापित हो जाएगी।


जिओ टेलीकॉम का उदाहरण सबके सामने है। प्राइवेट सेक्टर में जब बड़ी मछली की एंट्री होती है तो छोटी मछलियां दम तोड़ देती हैं। समझने के लिए एक मिसाल और दे रहा हूँ। 


कई साल पहले पंजाब सरकार ने रोडवेज रूट पर प्राइवेट बसों के परिचालन की छूट दी तो जिनके पास दो-चार बसें थीं, उनकी बांछे खिल गईं थीं। प्राइवेट बसों के कई फ़ायदे गिनाए गए थे। 


दो- तीन साल बाद बादल परिवार इस क्षेत्र में कूद पड़ा। हुआ वही जो होना था। यात्रियों को शुरू में कुछ रियायतें दी गईं। 


बस परिचालन से जुड़े छोटे कारोबारी कंपीटिशन से बाहर होकर घर बैठ गए और हर रूट पर बादल परिवार की बसों का वर्चस्व कायम हो गया। 


शायद लोग भूल गए हैं कि वसुंधरा राजे की सरकार के अंतिम महीनों अगस्त-सितम्बर 2018 में रोडवेज की लंबी हड़ताल चली थी। हड़ताल लंबी खिंचने पर सरकार ने पंजाब से बादल परिवार की बसें मंगवा ली थी। 


पंजाब से बसों का बेड़ा जब रास्ते में था तभी विधनसभा चुनाव की तारीख की घोषणा हो गई। चुनाव आचार संहिता लगने का सहारा लेकर रोडवेज कर्मचारियों ने हड़ताल ख़त्म कर दी और रोडवेज के अमले को बचा लिया। 


इस उदाहरण से स्पष्ट है कि सरकारी तंत्र हमेशा बड़ी मछलियों के हित साधता है।


कॉरपोरेट कंपनियों ने सरकार की सरपरस्ती से देश की ग्रामीण उद्योग की कमर पहले ही तोड़ चुकी है। सारे कुटीर उद्योग बन्द हो चुके हैं। 


ग्राहकों के हितों की डुगडुगी बजाकर लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़ दिया गया। 


ग्रामीण उद्योगों में लोकल स्तर पर उत्पादित वस्तुओं को घटिया व महँगा और कम्पनी उत्पादन को सस्ता व क्वालिटी उत्पादन के रूप में प्रचारित कर मार्किट को कम्पनी प्रोडक्ट्स से भर दिया गया।


लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़कर बड़े कारखानों के प्रोडक्ट्स को प्रमोट करने में यहाँ के व्यापारियों व दुकानदारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। 


कॉरपोरेट घरानों ने अपनी कंपनी के प्रोडक्ट्स को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिये शुरुआत में स्थानीय व्यापारियों का इस्तेमाल किया और इनके जरिए अपना माल बेचा। 


अब कॉरपोरेट घरानों ने अपना माल बेचने के लिये खुद की व्यवस्था बना ली है। ऑनलाइन शॉपिंग परवान चढ़ा दी गई है। छोटे दुकानदार अब बैठे हवा खा रहे हैं क्योंकि अब कॉरपोरेट घरानों को छोटे दुकानदारों की आवश्यकता नहीं है। 


अब छोटे दुकानदार कॉरपोरेट घरानों द्वारा शुरू की गई ऑनलाइन शॉपिंग को कोसते रहते हैं। बाजार पर कॉरपोरेट्स का दबदबा कायम करने में इन छोटे-मोटे व्यापारियों ने शुरुआत में ख़ूब मदद की थी। 


लालच में आकर ग्रामीण उद्योगों के प्रोडक्ट्स से अपना मुँह मोड़कर ख़ुद को कार्पोरेट के हवाले कर दिया था।


भारत का 90% रिटेल बिज़नेस असंगठित ( unorganized ) है, जिसमें किराना, कपड़ा, दूध, सब्जियां, दवाई, होजरी आदि शामिल हैं। 


अब रिलायंस ने अपनी रिटेल बिजनेस पर पकड़ मजबूत करने के लिए फ्यूचर रिटेल (बिग बाजार) नाम की कंपनी को खरीद लिया है। 


आने वाले चार-पांच सालों में जब मध्यवर्गीय उपभोक्ता कॉरपोरेट्स के स्टोर्स और उनसे ऑनलाइन शॉपिंग करने लग जाएगा तब इन छोटे दुकानदारों को भी 'आज़ादी' मिल जाएगी और 'आज़ादी' का मतलब भी इन्हें समझ में आ जाएगा।


वैसे 'आज़ादी' का कुछ मिठास तो इन्हें कोविड-19 महामारी के दौरान मिल चुका है। विडम्बना देखिए कि छोटे दुकानदारों की दुकानदारी ग़रीब जनता की ग्राहकी पर ही टिकी हुई है और वे उन्हीं ग़रीब ग्राहकों से सामान की अनुचित क़ीमत वसूलते हैं।


खैर, किसान कल्याण की डुगडुगी बजाकर पारित करवाए गए इन बिलों से किसान तो बरबाद होंगे ही पर इसका असर रिटेल व्यापार (किराना, कपड़ा, दूध, फल-सब्जी के दुकानदार) और मध्यवर्गीय शहरी उपभोक्ताओं पर भी पड़ना लाज़िम है। 


सरकारी तंत्र के प्रचार-प्रसार और पालतू मीडिया के झूठे नैरेटिव के सुनहरे आवरण में कुरूप हक़ीक़त को छुपाने का काम कर रहे हैं और लोग झूठ की वाहवाही कर रहे हैं।


एक ख़तरा और भी है। जी.एस.टी. प्रणाली के ज़रिए केंद्र का सभी व्यापारिक व वाणिज्य मामलों में दख़ल बढ़ गया है। 


इन बिलों से हमारे संविधान में उल्लिखित संघीय ढ़ाँचे पर भी प्रहार हुआ है। राज्यों के टैक्स के रास्ते ( avenues ) को केंद्र सरकार धीरे- धीरे बंद कर रही है और उन्हें खुद हड़पति जा रही है ताकि राज्य सरकारें केंद्र के रहमो- करम पर निर्भर हो जाएं।


वैसे किसानों को बरगलाने का क्रम सदा से चलता रहा है। मसलन, कृषि जिंसों का वायदा कारोबार जब शुरू हुआ था तब इसके ख़ूब लाभ गिनाए गए थे, जैसे किसान फसल का एडवांस में सौदा तय कर सकेगा, किसान को MSP से ज्यादा भाव मिलेगा, देश में सभी किसानों को एक भाव मिलेगा आदि। 


वो सब वादे खोखले साबित हुए। हक़ीक़त सामने ये आई कि आवश्यक वस्तुओं ( essential commodities ) का भाव कम या ज्यादा करना सटोरियों के हाथ में है। बिना किसी शारीरिक श्रम के भारी लाभ भी वे ही कमाते हैं। 


वायदा कारोबार और सट्टे में ज्यादा अन्तर नहीं है। अब ये किसानों के समझ में आ चुकी है। 'एक देश, एक बाज़ार' के वादे का भी ये ही हश्र होना है।


कुछ सज्जन कहते हैं कि इन कानूनों से गाँवों में किसान व्यापारी बन जाएंगे और दूसरे किसानों से अनाज खरीदकर लाभ कमा सकेंगे। 


वैसे अब भी ये काम हर गाँव में दो -तीन लोग करते हैं। लेकिन गाँव में पूंजी की कमी, स्टॉक करने की व्यवस्था का अभाव और बाजार में कीमतों की अनिश्चितता के कारण उनके कई बार घाटा उठाना पड़ता है। 


इसका सबसे ज्यादा चर्चित उदाहरण पेश कर रहा हूँ। साल 2012 में गुंवार के भाव बाज़ार में अप्रत्याशित रूप में ऊंचे चढ़े। माना जाता है कि भावों को इतना ऊंचा चढ़ाने में गंगानगर ( राजस्थान ) के उद्योगपति श्री बी. डी. अग्रवाल और नोखा के कुछ व्यापारियों का हाथ था। 


व्यापारी फ़ायदा उठाते रहे। माल इधर से उधर करते रहे। गाँवों में कई लोग व्यापारी बनकर घूमने लगे। गुंवार खरीदा, स्टॉक किया और ऊंचे भाव के लालच में मैदान में डटे रहे। 


जब गुंवार के भाव 20 हज़ार के लगभग पहुंचे तब तक ज्यादातर किसानों ने अपना गुंवार बेच चुके थे। उस गुंवार से व्यापारी चांदी कूटते रहे। फिर क्या हुआ? वही जो बाजार रची राखा। 


40 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल बिक चुके गुंवार का भाव बाज़ार में सटोरियों के दबाब में 7 हज़ार और बाद में 5 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल पर आ टिका। गाँवों में उस सदमें से कुछ लोग अब तक उबरे नहीं हैं। क़ीमतों का जंजाल कुछ ऐसा है कि बाज़ार की माया बाजार ही जाने।


बड़े व्यापारी किसानों को कैसे बरगलाते हैं, इसका एक क्लासिक किस्सा पूंजीपति अग्रवाल से ही जुड़ा है। गुंवार के भाव जिस साल आसमान छू रहे थे, उस साल महाशय बी .डी अग्रवाल ने किसानों को अगले साल सिर्फ गुंवार की बुवाई कर धन कमाने का गुरुमंत्र दिया। 


ऊंचे दाम पर फसल खरीदने का आश्वासन देकर एडवांस में कुछ राशि भी किसानों को दी। साल 2013 में राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले 'जमींदारा पार्टी' बनाई। खुद अध्यक्ष बने। 


चुनाव में अपनी बेटी कामिनी जिंदल सहित कुछ उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा। किसानों ने दिल खोलकर वोट देकर उनकी बेटी और एक अन्य उम्मीदवार को जिताया। 


बाद में किसान गुंवार की फसल को 5 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचकर घर बैठ गए। आश्वासन का हश्र क्या होता है, इसे समझने के लिए क्या ये मिसाल काफी नहीं है?


ये आलेख अभी तैयार कर रहा था तभी खबर मिली कि किसी समय 'गुंवार किंग' माने जाने वाले श्री बी. डी. अग्रवाल की कोविड-19 से मृत्यु हो गई है। दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थना करता हूँ।


काश, ऐसा किया जाता!


कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, "गांवों-किसानों के हित में हमारा अच्छा मॉडल है एपीएमसी मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य का, जो हमने कहीं से उधार नहीं लिया। अभी पूरे देश में 7,000 मंडियां हैं, हमें चाहिए 42,000 मंडियां। 


नए प्रावधानों के बाद सब बोल रहे हैं कि किसानों को अच्छा दाम मिलेगा। अच्छा दाम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही होना चाहिए, तो फिर समर्थन मूल्य को पूरे देश में वैध क्यों न कर दिया जाए?"


यह बात सर्वविदित है कि मंडी सिस्टम में कई खामियां हैं। राजनीतिक रूप से रसूखदारों का बोलबाला है। 


छोटे किसानों को तरज़ीह नहीं मिलती। कहने को 23 रबी -ख़रीफ़ फ़सलों के लिए एम.एस.पी की व्यवस्था है पर खरीद सिर्फ़ गेंहू और कुछ धान की ही होती है। सभी कृषि उत्पादों का एमएसपी निर्धारित होना चाहिए। 


एमएसपी से कम पर किसान के उत्पादों को खरीदने पर खरीदने वाले व्यापारी को सजा देने का प्रावधान किया जाना चाहिए।


मंडी सिस्टम की खामियों को दूर करने का प्रयास करने की बज़ाय किसानों के लिए बनाए गए इस आंशिक सुरक्षा कवच को ही सरकार ने व्यापारियों का हित साधने के लिए नष्ट करने की ठान ली है। 


कृषि विषयों की समझ रखने वाले योगेन्द्र यादव ठीक कहते हैं कि, 'किसान के सिर पर अभी तक एक टूटी फूटी सी छत थी, अब नया कानून बनाकर उसे भी हटाया जा रहा है।'


इसमें मैं इतनी बात और जोड़ देता हूँ कि सरकार किसानों के सिर पर से यह छत ये दुहाई देकर तोड़ रही है कि इससे किसान आज़ाद होकर खुले में मौसमों की मार सहकर सशक्त हो जाएंगे, 'आत्मनिर्भर' हो जाएंगे।


भारत की खेती को लाभकारी बनाने के लिए जरूरी है की मूल्य निर्धारण में जोखिम उठाने का पारिश्रमिक भी जोड़ा जाए और किसानों के जीवन यापन के तत्व को भी उसमें शामिल किया जाए।


स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों की सम्पूर्ण लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर समर्थन मूल्य देने, बाजार में किसान के मोलभाव की ताकत को बढ़ाने के लिए इस मूल्य पर हर कृषि उत्पाद की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने की जरूरत है।


प्रो.महीपाल सिहं        शिळक एवं लेखक

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