डब्लू अच् ओ (WHO) की साख पर उठते सवाल

डब्लू अच् ओ (WHO) की साख पर उठते सवाल 


डब्लू .अच्. ओ (WHO) की साख पर उठते सवाल 
डब्यलूएचओ यानि   विश्व स्वास्थ्य संगठन  की शुरुआत 1948 में हुई  स्वास्थ्य के मुद्दे और समस्या की ओर आम जनता की जागरुकता बढ़ाने के लिये के मकसद से सयुंक्त राष्ट्र द्वारा इसकी स्थापना की गई थी यह   विश्व स्वास्थ्य संगठन पिछले कुछ महीनों से  लगातार सुर्खियों में है. दुनिया भर की सरकारें कोरोना महामारी से निपटने के लिए डब्ल्यूएचओ से मदद ले रही हैं. संयुक्त राष्ट्र की यह एजेंसी वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सुझाव दे रही है, वैज्ञानिकों का डाटा जमा कर रही है और जहां विशेषज्ञों की जरूरत है, उन्हें मुहैया करा रही है WHO न सिर्फ कोरोना महामारी बल्कि टीबी से  लेकर कैंसर तक तमाम तरह की बीमारियों को लेकर दुनिया भर के देशों में काम करता है'  . लेकिन इस महामारी से निपटने के तरीके को लेकर डब्ल्यूएचओ की कई जगह कड़ी निंदा भी हुई है. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि वॉशिंगटन अब डब्ल्यूएचओ को दी जाने वाली मदद राशि को रोक देगा. ट्रंप के इस फैसले ने दुनिया भर को हैरान कर दिया. उन्होंने कहा कि डब्ल्यूएचओ ने नॉवल कोरोना वायरस को वक्त रहते समझने में चूक कर दी. उन्होंने डब्ल्यूएचओ पर चीन का पक्ष लेने और महामारी को "बेहद बुरी तरह से संभालने" का आरोप भी लगाया.

ट्रंप अकेले नहीं हैं जो इस तरह के आरोप लगा रहे हैं. कई राजनीतिक जानकार और वैज्ञानिक भी डब्ल्यूएचओ पर चीन का साथ देने का आरोप लगा रहे हैं. अमरीका के सुर में सुर मिलाते हुए जर्मनी ,इटली ,स्पेन ,साउथ कोरिया आदि कई देश भी इस एजेंसी की पक्षपाती मंशा के विरुद्ध लामबंद हो गए है  सक की सुई और भी गहरी तब हुई जब     जनवरी के अंत में डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस एधानोम घेब्रेयसस ने बीजिंग में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात की और संक्रमण को रोकने के लिए चीन के प्रयासों की सराहना की. उन्होंने संक्रमण के फैलाव को लेकर "खुल कर जानकारी साझा करने" पर कम्युनिस्ट पार्टी की तारीफ भी की. ऐसा तब था जब वुहान में चीनी अधिकारी कोरोना के बारे में जानकारी देने वालों पर "अफवाहें फैलाने" के आरोप में कार्रवाई कर रहे थे. यहीं तक कि शुरुआत में तो डब्ल्यूएचओ ने विदेशों से चीन की यात्राएं जारी रखने की पैरवी की और देशों से अपनी सीमाएं भी खुली रखने को कहा.
जानकारों का मानना है कि डब्ल्यूएचओ को शायद डर था कि अगर वह चीन को किसी भी रूप में चुनौती देता है, तो चीन की प्रतिक्रया संकट को और गहरा कर  सकती है. और  "ऐसा हो सकता था कि फिर चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जरूरी जानकारी साझा करना बंद कर देता या फिर डब्ल्यूएचओ के रिसर्चरों को देश में ही नहीं आने देता.. लेकिन इससे यह बात साफ नहीं होती कि डब्ल्यूएचओ ने चीन की इतनी तारीफ क्यों की. इस तरह से बढ़ चढ़ कर और कई बार तो गलत तरीके से तारीफ करना अनावश्यक था और गलत भी."इस से सवाल उठाना तो लाजिमी है ही साथ साथ  संथा  की प्रतिस्था भी दांव पर है 


डब्यलूएचओ को  कहां से मिलता  है धन 


 संस्था को  दो तरह से धन मिलता है. पहला, एजेंसी का हिस्सा बनने के लिए हर सदस्य को एक रकम चुकानी पड़ती है. इसे "असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन" कहते हैं. यह रकम सदस्य देश की आबादी और उसकी विकास दर पर निर्भर करती है. दूसरा है "वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन" यानी चंदे की राशि. यह धन सरकारें भी देती हैं और चैरिटी संस्थान भी. राशि किसी ना किसी प्रोजेक्ट के लिए दी जाती है. बजट हर दो साल पर निर्धारित किया जाता है
. डब्ल्यूएचओ की जब शुरुआत हुई थी तब उसके बजट की करीब आधी रकम सदस्य देशों से असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में आती थी. इस बीच वर्तमान में  यह सिर्फ 20 प्रतिशत ही रह गई है. यानी एजेंसी को ज्यादातर धन अब वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन के रूप में मिल रहा है. जानकारों का मानना है कि ऐसे में एजेंसी उन देशों और संस्थाओं पर निर्भर होने लगी है जो उसे ज्यादा पैसा दे रहे हैं. पिछले सालों में चीन का योगदान 52 फीसदी तक बढ़ गया है. अब वह 8.6 करोड़ डॉलर दे रहा है. वैसे तो बड़ी आबादी के कारण चीन का असेस्ड कॉन्ट्रीब्यूशन भी ज्यादा है लेकिन उसने वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन भी बढ़ाया है. हालांकि अमेरिका के सामने चीन का योगदान कुछ भी नहीं है.मुख्य दान दाताओ की बात करे तो  2018-19 में अमेरिका ने कुल 89 करोड़ डॉलर दिए. दुनिया भर से आए वॉलंटरी कॉन्ट्रीब्यूशन का  लगभग 14 फीसदी अमेरिका  ही देता है . दूसरे नंबर पर कुल 43 करोड़ डॉलर के साथ है ब्रिटेन. इसके बाद जर्मनी और जापान का नंबर आता है.जब की भारत का योगदान 0 .7 % यानि मात्र 3 .9  मिलियन डॉलर का था जब की दुनिया  का दूसरा  सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है  भारत .  

(लेखक  एक शिक्षाविद एवं  सामाजिक चिंतक है )
प्रो . महिपाल सिंह
गुडगाँव
हरियाणा
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