कृषि कानूनो के भयकंर होगें दूरगामी परिणाम
ये कृषि सुधार कानून बड़े कॉरपोरेटों और विशाल कृषि व्यापार कम्पनियों सहित बड़े थोक व्यापारियों के पक्ष में बने हैं। किसान कल्याण की बज़ाय कॉरपोरेट कल्याण के कानून हैं।
किसान को निर्बल कर कॉरपोरेट्स को सबल करने का प्रयास किया गया है। सरकार की मिलीभगत से कॉरपोरेट घरानें अब होंगे नए जमींदार और वे अन्नदाता कहलायेंगे।
भारत में पारिवारिक खेती कुछ वर्षों बाद कॉरपोरेट घरानों की खेती की शक़्ल अख़्तियार कर लेगी। रियासती और अंग्रेजी राज में जमींदारी प्रथा के ज़रिए किसानों की मेहनत की लूट की व्यवस्था थी।
अब इन कानूनों के ज़रिए कृषि उत्पादों के ट्रेड एंड कॉमर्स पर कॉरपोरेट सेक्टर को एकाधिकार जमाने का मौका दे दिया गया है।
कुछ सालों बाद कॉरपोरेट घरानों का कृषि ट्रेड एवं कॉन्ट्रैक्ट खेती पर कब्ज़ा हो जाने पर कॉरपोरेट घराने नए जमींदार होंगे और ये बदले हुए रूप की जमींदारी प्रथा स्थापित हो जाएगी। जैसी मघ्यप्रदेश,बिहार आदि राज्यो मे हुआ करती थी
जिओ टेलीकॉम का उदाहरण सबके सामने है। प्राइवेट सेक्टर में जब बड़ी मछली की एंट्री होती है तो छोटी मछलियां दम तोड़ देती हैं।
कॉरपोरेट कंपनियों ने सरकार की सरपरस्ती से देश की ग्रामीण उद्योग की कमर पहले ही तोड़ चुकी है। सारे कुटीर उद्योग बन्द हो चुके हैं।
ग्राहकों के हितों की डुगडुगी बजाकर लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़ दिया गया।
ग्रामीण उद्योगों में लोकल स्तर पर उत्पादित वस्तुओं को घटिया व महँगा और कम्पनी उत्पादन को सस्ता व क्वालिटी उत्पादन के रूप में प्रचारित कर मार्किट को कम्पनी प्रोडक्ट्स से भर दिया गया।
लोकल प्रोडक्ट्स को मार्किट से बाहर खदेड़कर बड़े कारखानों के प्रोडक्ट्स को प्रमोट करने में यहाँ के व्यापारियों व दुकानदारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
कॉरपोरेट घरानों ने अपनी कंपनी के प्रोडक्ट्स को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिये शुरुआत में स्थानीय व्यापारियों का इस्तेमाल किया और इनके जरिए अपना माल बेचा।
अब कॉरपोरेट घरानों ने अपना माल बेचने के लिये खुद की व्यवस्था बना ली है। ऑनलाइन शॉपिंग परवान चढ़ा दी गई है। छोटे दुकानदार अब बैठे हवा खा रहे हैं क्योंकि अब कॉरपोरेट घरानों को छोटे दुकानदारों की आवश्यकता नहीं है।
अब छोटे दुकानदार कॉरपोरेट घरानों द्वारा शुरू की गई ऑनलाइन शॉपिंग को कोसते रहते हैं। बाजार पर कॉरपोरेट्स का दबदबा कायम करने में इन छोटे-मोटे व्यापारियों ने शुरुआत में ख़ूब मदद की थी।
लालच में आकर ग्रामीण उद्योगों के प्रोडक्ट्स से अपना मुँह मोड़कर ख़ुद को कार्पोरेट के हवाले कर दिया था।
भारत का 90% रिटेल बिज़नेस असंगठित ( unorganized ) है, जिसमें किराना, कपड़ा, दूध, सब्जियां, दवाई, होजरी आदि शामिल हैं।
अब रिलायंस ने अपनी रिटेल बिजनेस पर पकड़ मजबूत करने के लिए फ्यूचर रिटेल (बिग बाजार) नाम की कंपनी को खरीद लिया है। और मघ्यप्रदेश जेैसे राज्यो मे तो पुर्ण बाजार पर कब्जा कर लिया है
आने वाले चार-पांच सालों में जब मध्यवर्गीय उपभोक्ता कॉरपोरेट्स के स्टोर्स और उनसे ऑनलाइन शॉपिंग करने लग जाएगा तब इन छोटे दुकानदारों को भी 'आज़ादी' मिल जाएगी और 'आज़ादी' का मतलब भी इन्हें समझ में आ जाएगा।
वैसे 'आज़ादी' का कुछ मिठास तो इन्हें कोविड-19 महामारी के दौरान मिल चुका है। विडम्बना देखिए कि छोटे दुकानदारों की दुकानदारी ग़रीब जनता की ग्राहकी पर ही टिकी हुई है और वे उन्हीं ग़रीब ग्राहकों से सामान की अनुचित क़ीमत वसूलते हैं।
खैर, किसान कल्याण की डुगडुगी बजाकर पारित करवाए गए इन बिलों से किसान तो बरबाद होंगे ही पर इसका असर रिटेल व्यापार (किराना, कपड़ा, दूध, फल-सब्जी के दुकानदार) और मध्यवर्गीय शहरी उपभोक्ताओं पर भी पड़ना लाज़िम है।
सरकारी तंत्र के प्रचार-प्रसार और पालतू मीडिया के झूठे नैरेटिव के सुनहरे आवरण में कुरूप हक़ीक़त को छुपाने का काम कर रहे हैं और लोग झूठ की वाहवाही कर रहे हैं।
एक ख़तरा और भी है। जी.एस.टी. प्रणाली के ज़रिए केंद्र का सभी व्यापारिक व वाणिज्य मामलों में दख़ल बढ़ गया है।
इन कानूनों से हमारे संविधान में उल्लिखित संघीय ढ़ाँचे पर भी प्रहार हुआ है। राज्यों के टैक्स के रास्ते ( avenues ) को केंद्र सरकार धीरे- धीरे बंद कर रही है और उन्हें खुद हड़पति जा रही है ताकि राज्य सरकारें केंद्र के रहमो- करम पर निर्भर हो जाएं।
वैसे किसानों को बरगलाने का क्रम सदा से चलता रहा है। मसलन, कृषि जिंसों का वायदा कारोबार जब शुरू हुआ था तब इसके ख़ूब लाभ गिनाए गए थे, जैसे किसान फसल का एडवांस में सौदा तय कर सकेगा, किसान को MSP से ज्यादा भाव मिलेगा, देश में सभी किसानों को एक भाव मिलेगा आदि।
वो सब वादे खोखले साबित हुए। हक़ीक़त सामने ये आई कि आवश्यक वस्तुओं ( essential commodities ) का भाव कम या ज्यादा करना सटोरियों के हाथ में है। बिना किसी शारीरिक श्रम के भारी लाभ भी वे ही कमाते हैं।
वायदा कारोबार और सट्टे में ज्यादा अन्तर नहीं है। अब ये किसानों के समझ में आ चुकी है। 'एक देश, एक बाज़ार' के वादे का भी ये ही हश्र होना है।
कुछ सज्जन कहते हैं कि इन कानूनों से गाँवों में किसान व्यापारी बन जाएंगे और दूसरे किसानों से अनाज खरीदकर लाभ कमा सकेंगे।
वैसे अब भी ये काम हर गाँव में दो -तीन लोग करते हैं। लेकिन गाँव में पूंजी की कमी, स्टॉक करने की व्यवस्था का अभाव और बाजार में कीमतों की अनिश्चितता के कारण उनके कई बार घाटा उठाना पड़ता है।
प्रो.महीपाल सिहं शिळक एवं लेखक
Comments
Post a Comment