*सरकार समर्थक मीडिया और किसान ।*
(समस्या और समाधान आप ही हैं )
कृषि क़ानून, किसान आंदोलन और 26 जनवरी किसान मार्च की कवरेज जिस तरह से आपने की है यकीन मानिये आजतक के इतिहास में इससे घटिया और कमजोर पत्रकारिता किसी ने नहीं देखी होगी।
आपने किसानों को पहले आतंकी कहा, उपद्रवी बोला यहाँ तक की किसान को किसान मानने से भी इनकार कर दिया। 2 महीने से किसान कड़कती ठण्ड में कृषि और किसान शोषक क़ानून का विरोध करता रहा आप उन्हें खालिस्तानी, कभी कांग्रेसी, वामपंथी साबित करने पर तुले रहें, क्युकी इन्हे सत्ताधारी सोशल मीडिया सेल पहले ही लोगों के जहन में देश विरोधी के रूप में उतारने की कोशिश करती रही है। आज जब किसानों की बात नहीं सुनी जा रही तो उन्हें भी इसी लाइन में खड़ा कर दिया अब जब उन्होंने अपनी मांगो को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और पुलिस प्रशासन की मंजूरी लेकर तय रूठो से गणतंत्र दिवस पर अपनी आवाज़ उठाने और शांतिपूर्ण तिरंगा मार्च निकालने की अनुमति ली और देश के लाखों किसान अपने ट्रैक्टरों सहित आगे बढे तो आपकी घटिया रिपोर्टिंग आपके करोड़ों किसान दर्शकों के जख़्मो पर नमक डाल रही थी।
आपने 12 बजे लाइव में जब किसानों को पुलिस द्वारा बेरियर लगाकर रोका जा रहा था तब उसमें प्रशासन से सवाल पूछने के बजाय किसानों को उपद्रवी बोला जा रहा था, किसानों पर लाठिया बरसाई जा रही थी, आशुगैस के गोले दागे जा रहें थे। पलवल के किसानों बल्लभगढ़ से पहले सिकरी में ही रोक दिया गया, जबकि वे बाईपास रोड़ से सीधा गाजीपुर की तरफ शांतिपूर्ण निकल रहें थे। पुलिस के लाठी चार्ज से हजारों किसान के सिर फूट गए तब भी आप कभी समय का बहाना देकर फिर रूठ का बहाना देकर पुलिस को सही और किसानों को गलत साबित करने पर तुले रहे, रिपोर्टिंग समय और लाइव वीडियो यूट्यूब पर अभी भी उपलब्ध हैं देखकर कुछ शर्म करो।
यदि मैं आपका चैनल या कम्पनी ज्वाइन करता हूँ तो मुझे आपके नियमों के अनुसार काम करना हैं, भले पत्रकार को स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए। यदि आप कही किराये पर होटल में रूम लेते हैं तो आपको होटल के नियमों का पालन करना होगा लेकिन कृषि क़ानून उल्टा है ज़मीन किसान की ठेकेदारी नियम कम्पनीयों के चलेंगे, ये कहाँ का न्याय हैं? जमीन किसान की तो क्या नियम किसान के नहीं होने चाहिए?
आपने काले कृषि क़ानून और किसानों की सही रिपोर्टिंग की होती उन्हें आतंकी साबित करने की कोशिश नहीं की होती तो 26 जनवरी को ही किसान तिरंगा मार्च नहीं निकालते, इसके बाद भी तय रूठो पर ट्रेक्टरों को निकालने में पुलिस ने सुविधा दी होती तो किसान रास्ता नहीं भटकते, किसानों का इतना नुकसान नहीं होता। लेकिन किसान आंदोलन और किसानों को हमेशा से ही गलत साबित करने की आपकी घटिया पत्रकारिता का परिणाम आज देश ने देखा हैं। जहां रास्ता खुलवाने पर लाठियों से पिटते किसान आपने दिखाए, शांतिपूर्ण मार्च में किसानों के ऊपर होती फूल वर्षा की एक वीडियो आपने नहीं चलाई, आखिर क्यों?
आज जब घर जाकर खाना खाओ और जो रोटी, शब्जी, फल, दूध, चाय, काफ़ी आदि लो तो उसमें अपने पसीने से सिंचकर आप तक पहुंचाने वाले अन्नदाता के खून की दुर्गन्ध भी महसूस करना जो आपकी वजह से आज दिल्ली की सड़कों पर बहा हैं।
जिस किसान शोषक क़ानून को आप पहले दिन से ही सही ठहरा रहें हैं उसमें 50 बिंदुओं को आपके चैनलों पर ही गलत साबित किया जा चुका हैं, आप भी इस बात को मानते है यह गलत है, फिर भी उस काले क़ानून को मनवाने के लिए किसानों पर दबाब क्यों डाल रहें हैं? कभी आप इसकी वापसी की बात क्यों नहीं करते? लोकसभा राज्यसभा में दोबारा भेजनें की बात क्यों नहीं करते? कृषि क़ानून पर नीति आयोग, किसान आयोग द्वारा पुनः विचार की बात क्यों नहीं करते? आखिर क्यों आपको पूँजीपति सरकारों की गुलामी करनी है?
आखिर क्यो मुकरी सरकार 2014 & 2019 चुनावी घोषणा पत्र के वादो से ? क्यो प्रो एम एस स्वामीनाथन की रिपोर्ट को आघार नही बनाया गया . क्यो मिडिया सिर्फ कानूनो की वकालत करता है
सरकार को खुद ठेका लेना चाहिए, क्यों वो रेट किसानों को नहीं दे सकती हैं जो कम्पनीयों से दिलवाना चाहती हैं? सरकार बनाने और चुनाव फाइनेंस में कंपनी मदद करें तो रोड बनाने टोल वसूलने, रक्षा समान और हथियार बनने, तेल बेचने, बिजली बनाने, बैंकिंग के लिए यहाँ तक की ट्रांसपोर्ट, एयरलाइन, रेलवे और सरकारी कंपनीयों को बेचने पर भी तुली हैं, वह भी उन कंपनीयों को जिसमें विदेशी कंपनीयों के शेयर हैं, वादा भले देश नहीं बिकने दूँगा का रहा हो लेकिन आज यह हो रहा हैं। पहले निजी स्कूलों को चलवाने के लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करो, जिओ को चलाने के लिए बीएसएनएल बर्बाद करो फिर आपकी डिबेट में सरकारी स्कूल को बंद करने और सस्थानों को भार बता कर बंद करने बहस हो और सत्ताधारी मीडिया और आई टी सेल के सर्वे का सर्वे प्रतिशत भी इसे जायज ठहरा देते हैं। याद रखिये ये प्रोपोगेंडा देश समझ रहा हैं किसने ये संस्थान बनवाये और कौन इन्हे बर्बाद कर बेच रहा हैं वह भी राष्ट्रवाद का चोला पहनकर, उल्टी गिनती शुरू हो चुकी हैं वक़्त रहते सुधार जरुरी हैं।
क्यों सरकार खुद पब्लिक वेलफेयर के काम नहीं कर सकती हैं? सरकार अब कृषि और किसान भी कंपनीयों के हवाले कर देना चाहती हैं। जो पूरा कृषि क़ानून ईस्ट इंडिया कंपनी की तर्ज पर बना हैं जिसमें किसान तरबूज हैं और कंपनी को चाकू की ताकत दे दी गई हैं काटो किसान को हर तरह से, क्यों यह सब नहीं दिखाई देता आपको?
इसके लिए आंदोलन करें तो आतंकी या फिर बीच का रास्ता निकाल लो चाकू उल्टा गिरे या सीधा कटना तरबूज ही हैं, कोई भी निजी कंपनी प्रॉफिट के लिए काम करती हैं और सरकार से वेलफेयर की उम्मीद रहती हैं लेकिन यहाँ तो कंपनी सरकार चल रही हैं। जिस सरकार के नेता पूँजीपतियों के हाथों की कटपुतली बन कर रह जाएं वह पूँजीवादी सरकार पब्लिक वेलफेयर कैसे कर सकती है? आपकी रिपोर्टिंग भी यह दर्शाती हैं आज मीडिया भी इसका हिस्सा बन चुका हैं?
लोकतंत्र खतरे में तभी कृषि किसान खतरे में हैं, यदि कृषि किसान खतरे में हैं तो देश और संविधान भी खतरे में हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का यदि चौथा हो गया तो फिर न लोकतंत्र बचेगा न देश और न संविधान, कृप्या वक़्त रहते बचा लो इसे।🌹🙏
नफरत है बुरी कभी भी नही पालो इसे,
दिलों में यदि खालिश है, निकालो इसे।
ना तेरा ना मेरा - ना इसका ना उसका,
ये देश हैं हम सबका, संभालो इसे।
🇮🇳 जय हिन्द
प्रो महीपाल सिहं विश्लेषक एवं लेखक गुडगाव हरियाणा
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